"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 192 श्लोक 64-84": अवतरणों में अंतर

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==द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
==द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )==
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१२:५५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 64-84 का हिन्दी अनुवाद

आचार्य शरीर का रंग सांवला था । उनकी अवस्‍था चार सौ वर्ष की हो चुकी थी और उनके ऊपर से लेकर कान तक के बाल सफेद हो गये थे, तो भी आपके हित के लिये वे संग्राम सोलह वर्ष की उम्र वाले तरूण के समान विचरते थे। यद्पि उस समय महाबाहु कुन्‍ती कुमार अर्जुन ने बहुत कहा- ओ द्रुपद कुमार ! तुम आचार्य को जीते-जी आओ । उनका वध न करना । आपके सैनिक भी बारंबार कहते ही रह गये कि न मारो, न मारो। अर्जुन तो दयावश चिल्‍लाते हुए धृष्‍टधुम्न के पास आने लगे। परन्‍तु उनके तथा अन्‍य सब राजाओं के पुकारते रहने पर भी धृष्‍टधुम्न ने रथ की बैठक में नरश्रेष्‍ठ द्रोण का वध कर ही डाला। दुर्धर्ष द्रोणाचार्य का शरीर खून से लथपथ हो रथ से पृथ्‍वी पर गिर पड़ा, मानो लाल अंग कान्ति वाले सूर्य डूब गये हों। इस प्रकार सब सैनिकों ने द्रोणाचार्य का मारा जाना अपनी आंखों से देखा । राजन् ! महाधनुर्धर धृष्‍टधुम्न ने द्रोणाचार्य का वह सिर उठा लिया और उसे आपके पुत्रों के सामने फेंक दिया। महाराज ! द्रोणाचार्य के उस कटे हुए सिर को देखकर आपके सारे सैनिकों ने केवल भागने में ही उत्‍साह दिखाया और वे सम्‍पूर्ण दिशाओं में भाग गये। नरेश्‍वर ! द्रोणाचार्य आकाश में पहुंचकर नक्षत्रों के पथ में प्रविष्‍ट हो गये । उस समय सत्‍यवती नन्‍दन म‍हर्षि श्रीकृष्‍ण द्वैपायन के प्रसाद से मैनें भी द्रोणाचार्य की वह दिव्‍य मृत्‍यु प्रत्‍यक्ष देख ली। महातेजस्‍वी द्रोण जब आकाश को स्‍तब्‍ध करके उपर को जा रहे थे, उस समय हम लोगों ने यहां से उन्‍हें एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान को जाती हुई धूमर हित प्रज्‍वलित उल्‍का के समान देखा था। द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कौरव युद्ध का उत्‍साह खो बैठे, फिर पाण्‍डवों और सृंजयों ने उप पर बड़े वेग से आक्रमण कर दिया । इससे कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। युद्ध में आपके बहुत योद्धा तीखे बाणों द्वारा मारे गये थे और बहुत-से अधमरे हो रहे थे । द्रोणाचार्य के मारे जाने पर वे सभी निष्‍प्राण-से हो गये। इस लोक में पराजय और परलोक में महान् भय पाकर दोनों ही लोकों से वंचित हो वे अपने भीतर धैर्य न धारण कर सके। महाराज ! हमारे पक्ष के राजाओं ने द्रोणाचार्य के शरीर को बहुत खोजा, परंतु हजारों लाशों से भरे हुए युद्ध स्‍थल में वे उसे पा न स। पाण्‍डव इस लोक में विजय और परलोक में महान् यश पाकर वे धनुष पर बाण्‍ रखकर उसकी टंकार करने, शंख बजाने और बारंबार सिंहनाद करने लगे। राजन् ! तदनन्‍तर भीमसेन और द्रुपद कुमार धृष्‍टधुम्न एक दूसरे को हृदय से लगाकर सेना के बीच में हर्ष के मारे नाचने लगे। उस समय भीमसेन शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्‍टधुम्न से कहा- द्रुपदनन्‍दन ! जब सूतपुत्र कर्ण और पापी दुर्योधन मारे जायेंगे, उस समय विजयी हुए तुमको मैं फिर इसी प्रकार छाती से लगाउंगा। इतना कहकर अत्‍यंत हर्ष में भरे हुए पाण्‍डूनन्‍दन भीमसेन अपनी भुजाओं पर ताल ठोककर पृथ्‍वी को कम्‍पित-सी करने लगे। उनके उस शब्‍द से भयभीत हो आपके सारे सैनिक युद्ध से भाग चले। वे क्षत्रिय धर्म को छोड़‍कर पीठ दिखाने लग गये। प्रजानाथ ! पाण्‍डव विजय पाकर हर्ष से खिल उठे । संग्राम में जो शत्रुओं का भारी संहार हुआ था, उससे उन्‍हें बड़ा सुख मिला।

इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवध पर्व में द्रोणवध विषयक एक सौ बानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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