"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 18 श्लोक 19-34" के अवतरणों में अंतर

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१४:४२, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

अठारहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : अठारहवाँ अध्याय: श्लोक 24-40 का हिन्दी अनुवाद

’ जो बराबर दूसरों से दान लेता (भिक्षा ग्रहण करता) तथा जो निरन्तर स्वयं ही दान करता रहता ह, उन दोनों में क्या अन्तर है और उनमें से किसको श्रेष्ठ कहा जाता है? यह आप समझिये। ’सदा ही याचना करने वाले को और दम्भी को दी हुई। दक्षिणा दावानल में दी गयी आहुति के समान व्यर्थ है। ’राजन्! जैसे आग लकड़ी को जलाये बिना नहीं बुझती, उसी प्रकार सदा ही याचना करने वाला ब्राह्मण(याचना का अन्त किये बिना) कभी शान्त नहीं हो सकता। ’ इस संसार में दाता का अन्न ही साधु-पुरूषों की जीविका का निश्चित आधार है। यदि इन दान करने वाला राजा न हो तो मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले साधु-संन्यासी कैसे जी सकते हैं? ’ इस जगत् में अन्न से गृहस्थ और गृहस्थों से भिक्षुओं का निर्वाह होता है। अन्न से प्राणशक्ति प्रकट होती है; अतः अन्नदाता प्राणदाता होता है। ’जितेन्द्रिय संन्यासी गृहस्थी- आश्रम से अलग होकर भी गृहस्थों के ही सहारे जीवन धारण करते हैं। वहीं से वह प्रकट होते हैं और वहीं उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ’केवल त्याग से, मूढ़ता से और याचना करने से किसी को भिक्षु नहीं समझना चाहिये। जो सरल भाव से स्वार्थ का त्याग करत है और सुख में आसक्त नहीं होता, उसे ही भिक्षु समझिये। ’पृथ्वीनाथ! जो आसक्तिरहित होकर आसक्त की भाति विचरता है, जो संगरहित एवं सब प्रकार के बन्धनों को तोड़ चुका है तथा शत्रु और मित्र में जिसका समान भाव है, वह सदा मुक्त ही है। ’बहुत - से मनुष्य दान लेने (पेट पालने) के लिये मूड़ मुड़ाकर गेरूए वस्त्र पहन लेते हैं और घर से निकल जाते हैं। वे नाना प्रकार के बन्धनों में बॅधे होने के कारण व्यर्थ भोगों की ही खोज करते रहते हैं। ’बहुत से मुर्ख मनुष्य तीनों वेदों के अध्ययन, इीनमें बताये गये कर्म, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य तथा अपने पुत्रों का परित्याग करके चल देते हैं और त्रिदण्ड एवं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं। ’ यदि हृदय का कषाय (राग आदि दोष) दूर न हुआ तो तो काषाय (गेरूआ) वस्त्र धारण करना स्वार्थ- साधना की चेष्टा के लिये ही समझना चाहिये। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धर्म का ढोंग रखने वाले मथमुड़ों के लिये यह जीविका चलाने का एक धंधा मात्र है।’ महाराज! आप तो जितेन्द्रिय होकर नंगे रहने वाले, मूड़ मुड़ाने और जटा रखाने वाले साधुओं का गेरूआ वस्त्र, मृगचर्म एवं वल्कल वस्त्रों के द्वारा भरण-पोषण करते हुए पुण्य लोकों पर विजय प्राप्त कीजिये। ’ जो प्रतिदिन पहले गुरू के लिये अग्निहोत्रार्थ समिघा लाता है; फिर उत्तम दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ एवं दान करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा?

अर्जुन कहते हैं- महाराज! राजा जनक को इस जगत् में ’तत्वज्ञ’ कहा जाता है; किंतु वे भी मोह में पड़ गये थे। (रानी ने इस तरह समझाने पर राजा ने संन्यास का विचार छोड़ दिया । अतः) आप भी मोह के वशीभूत न होइये। यदि हम लोग सदा दान और तपस्या में तत्पर हो इसी प्रकार धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, कामक्रोध आदि दोषों को त्याग देंगे, उत्तम दान धर्म का आश्रय ले प्रजापालन में लगे रहेंगे तथा गुरूजनों और वृद्ध पुरूषों की सेवा करते रहेंगे तो हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों को विधि पूर्वक उनका भाग अर्पण करते हुए यदि हमब्राह्मणभक्त और सत्यवादी बने रहेंगे तो हमें अभीष्ट स्थान की प्राप्ति अवश्य होगी।

इस प्रकार श्रीमहाभारते शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन का वाक्य विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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