महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 18 श्लोक 19-34

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अष्टादश (18) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद

’यदि आपकी कोई यह कुण्डी फोड़ दे, त्रिदण्ड उठा ले जाय और ये वस्त्र भी चुरा ले जाय तो उस समय आपके मनकी कैसी अवस्था होगी? ’यदि सब कुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौ के लिये दूसरों की कृपा चाहते हैं तो राज्य आदि अन्य सब वस्तुएं भी तो इसी के समान हैं, फिर उस राज्य के त्याग की क्या विशेषता रही? ’यदि यहा मुट्ठीभर जौ की आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सब कुछ त्याग देने की जो आपने प्रतिज्ञा की थी, वह नष्ट हो गयी। (सर्वत्यागी हो जाने पर ) मैं आपकी कौन हॅू और आप मेरे कौन हैं तथा आपका मुझ पर अनुग्रह भी क्या है? ’राजन्! यदि आपका मुझ पर अनुग्रह हो तो इस पृथ्वी का शासन कीजिये और राजमहल, शरूया, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणों को भी उपयोग में लाइये। ’श्रीहीन, निर्धन, मित्रों द्वारा त्यागे हूए, अकिंचन एवं सुख की अभिलाषा रखने वाले लोगों की भाति सब प्रकार से परिपूर्ण राजलक्ष्मी का जो परित्याग करता है उससे उसे क्या लाभ?

’ जो बराबर दूसरों से दान लेता (भिक्षा ग्रहण करता) तथा जो निरन्तर स्वयं ही दान करता रहता ह, उन दोनों में क्या अन्तर है और उनमें से किसको श्रेष्ठ कहा जाता है? यह आप समझिये। ’सदा ही याचना करने वाले को और दम्भी को दी हुई। दक्षिणा दावानल में दी गयी आहुति के समान व्यर्थ है। ’राजन्! जैसे आग लकड़ी को जलाये बिना नहीं बुझती, उसी प्रकार सदा ही याचना करने वाला ब्राह्मण(याचना का अन्त किये बिना) कभी शान्त नहीं हो सकता। ’ इस संसार में दाता का अन्न ही साधु-पुरूषों की जीविका का निश्चित आधार है। यदि इन दान करने वाला राजा न हो तो मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले साधु-संन्यासी कैसे जी सकते हैं? ’ इस जगत् में अन्न से गृहस्थ और गृहस्थों से भिक्षुओं का निर्वाह होता है। अन्न से प्राणशक्ति प्रकट होती है; अतः अन्नदाता प्राणदाता होता है। ’जितेन्द्रिय संन्यासी गृहस्थी- आश्रम से अलग होकर भी गृहस्थों के ही सहारे जीवन धारण करते हैं। वहीं से वह प्रकट होते हैं और वहीं उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ’केवल त्याग से, मूढ़ता से और याचना करने से किसी को भिक्षु नहीं समझना चाहिये। जो सरल भाव से स्वार्थ का त्याग करत है और सुख में आसक्त नहीं होता, उसे ही भिक्षु समझिये। ’पृथ्वीनाथ! जो आसक्तिरहित होकर आसक्त की भाति विचरता है, जो संगरहित एवं सब प्रकार के बन्धनों को तोड़ चुका है तथा शत्रु और मित्र में जिसका समान भाव है, वह सदा मुक्त ही है। ’बहुत - से मनुष्य दान लेने (पेट पालने) के लिये मूड़ मुड़ाकर गेरूए वस्त्र पहन लेते हैं और घर से निकल जाते हैं। वे नाना प्रकार के बन्धनों में बॅधे होने के कारण व्यर्थ भोगों की ही खोज करते रहते हैं। ’बहुत से मुर्ख मनुष्य तीनों वेदों के अध्ययन, इीनमें बताये गये कर्म, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य तथा अपने पुत्रों का परित्याग करके चल देते हैं और त्रिदण्ड एवं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं। ’ यदि हृदय का कषाय (राग आदि दोष) दूर न हुआ तो तो काषाय (गेरूआ) वस्त्र धारण करना स्वार्थ- साधना की चेष्टा के लिये ही समझना चाहिये। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धर्म का ढोंग रखने वाले मथमुड़ों के लिये यह जीविका चलाने का एक धंधा मात्र है।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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