"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 153-168": अवतरणों में अंतर

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१३:३८, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चाशीतितमो अध्याय: श्लोक 153-168 का हिन्दी अनुवाद

सुवर्णदाता परम गति को प्राप्त होता है, उसे अंधकार रहित ज्योर्तिमय लोक मिलते हैं। भृगुनन्दन। स्वर्गलोक में उसका राजाधिराज (कुबेर) के पद पर अभिषेक किया जाता है। जो सूर्योदयकाल में विधिपूर्वक मंत्र पढकर सुवर्ण का दान करता है, वह अपने पाप और दुःस्वप्न को नष्ट कर डालता है। सूर्योदय के समय जो सुवर्ण दान करता है, उसका सारा पाप धुल जाता है, तथा जो मध्यान्ह काल में सोना दान करता है, वह अपने भविष्य के पापों का नाश कर देता है। जो सांय- संध्या के समय व्रत का पालन करते हुए सुवर्णदान देता है, वह ब्रम्हा, वायु, अग्नि और चन्द्रमा के लोकों में जाता है।इन्द्र सहित सभी लोकपालों के लोकों में उसे शुभ सम्मान प्राप्त होता है। साथ ही वह इस लोक में यशस्वी एवं पाप रहित होकर आनन्द भोगता है।मृत्यु के पश्चात जब वह परलोक में जाता है, तब वहां अनुपम पुण्यात्मा समझा जाता है। कहीं भी उसकी गति का प्रतिरोध नहीं होता और वह इच्छानुसार जहां चाहता है विचरता रहता है। सुवर्ण अक्षय द्रव्य है, उसका दान करने वाले मनुष्यों को पुण्य लोकों से नीचे नहीं आना पड़ता। संसार में उसे महान यश की प्राप्ति होती है तथा परलोक में उसे अनेक समृद्धिशाली पुण्यलोक प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य सूर्योदय के समय अग्नि प्रकट करके किसी व्रत के उद्वेश्‍य से सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। सुवर्ण को अग्नि स्वरूप ही कहते हैं। उसका दान सुख देने वाला होता है। वह यथेष्ट पुण्य को उत्पन्न करने वाला और दानेच्छा का प्रवर्तक माना गया है। प्रभो ! निष्पाप भृगुनन्दन ! यह मैंने तुम्हें सुवर्ण और कार्तिकेय की उत्पत्ति बतायी है। इसे अच्छी तरह समझ लो।भृगुश्रेष्ठ ! कार्तिकेय जब दीर्घकाल में बड़े हुए तब इन्द्र आदि देवताओं ने उनको अपने सेनापति के पद पर स्थापित किया।ब्रम्हन ! उन्होंने लोकों के हित की कामना एवं देवराज इन्द्र की आज्ञा से प्रेरित हो तारकासुर तथा अन्य दैत्यों का संहार कर डाला। प्रभो ! देवताओं में श्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णदान का महात्म्य बताया है। इसलिये अब तुम ब्राह्माणों का सुवर्ण का दान करो।भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर प्रतापी परशुरामजी ने ब्राह्माणों का सुवर्ण का दान किया। इससे वे सब पापों से छुटकारा पा गये।। राजा युधिष्ठिर ! इस प्रकार मैंने तुम्हे सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान का फल यह सब कुछ बता दिया। अतः नरेश्‍वर ! अब तुम भी ब्राह्माणों को बहुत-सा सुवर्ण दान करो। सुवर्ण दान करके तुम पाप से मुक्त हो जाओगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें सवर्ण की उत्पत्ति विषयक पचासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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