"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 92-105" के अवतरणों में अंतर

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== सत्रहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==सप्तदश (17) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 144-182 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 92-105 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
931 निर्वाणम्-मोक्षस्वरूप, 932 हादनः-आनन्द प्रदान करनेवाले, 933 ब्रहालोकः-ब्रहालोकस्वरूप, 934 परा गतिः-सर्वोत्कृष्ट गतिस्वरूप, 935 देवसुरविनिर्माता-देवताओं तथा असुरोंके जन्मदाता, 936 देवासुरपरायणः-देवताओं तथा असुरोंके परम आश्रय। 937 देवासुरगुरूः-देवताओं और असुरोंके गुरू, 938 देवः-परम देवस्वरूप, 939 देवासुरनमस्कृतः-देवताओं और असुरोंसे वन्दित, 940 देवासुरमहामात्रः-देवताओं और असुरोंसे अत्यन्त श्रेष्ठ, 941 देवासुरगणाश्रयः-देवताओं तथा असुरगणोंके आश्रय लेने योग्य। 942 देवासुरगणाध्यक्षः-देवताओं तथा असुरगणोंके अध्यक्ष, 943 देवासुरगणाग्रणीः-देवताओं तथा असुरोंके अगुआ, 944 देवातिदेवः-नारदस्वरूप, 945 देवर्षिः-नारदस्वरूप, 946 देवासुरवरप्रदः-देवताओं और असुरोंको भी वरदान देनेवाले। 947 देवासुरेश्वरः-देवताओं और असुरोंके ईश्वर, 948 विश्व-विराट् स्वरूप, 949 देवासुरमहेश्वरः-देवताओं और असुरोंके महान् ईश्वर, 950 सर्वदेवमयः-सम्पर्ण देवस्वरूप, 951 अचिन्तयः-अचिन्त्यस्वरूप, 952 देवतात्मा-देवताओं के अन्तरात्मा, 953 आत्मसम्भवः-स्वयम्भू। 954 उद्भित्-वृक्षादिस्वरूप, 955 त्रिविक्रमः-तीनों लोकोंको तीन चरणोंसे नाप लेनेवाले भगवान् वामन, 956 वैद्यः-वैद्यस्वरूप, 957 विरजः-रजोगुणरहित, 958 नीरजः-निर्मल, 959 अमरः-नाशरहितः-नाशरहित, 960 ईड्यः-स्तुतिके योग्य, 961 हस्तीश्वरः-ऐरावत हस्तीके ईश्वर-इन्द्रस्वरूप, 962 व्याघ्रः-सिंहस्वरूप, 963 देवसिंहः-देवताओंमें सिंहके समान पराक्रमी, 964 नरर्षभः-मनुष्योंमें श्रेष्ठ। 965 विबुधः-विशेष ज्ञानवान्, 966 अग्रवरः-यज्ञमें सबसे प्रथम भाग लेनेके अधिकारी, 967 सूक्ष्मः-अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूप, 968 सर्वदेवः-सर्वदेवस्वरूप, 969 तपोमयः-तपोमयस्वरूप, 970 सुयुक्तः-भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सब तरहसे सदा सावधान रहनेवाले, 971शोभनः-कल्याणस्वरूप, 972 वज्री-वज्रायुधधारी, 973 प्रासानां प्रभवः-प्रास नामक अस्त्रकी उत्पतिके स्थान, 974 अव्ययः-विनाशरहित।। 975 गुहः-कुमार कार्तिकेयस्वरूप 976 कान्तः-आनन्दकी पराकाष्ठारूप, 977 निजः-सर्गः-सृष्टिसे अभिन्न, 978 पवित्रम्-परम पवित्र, 979 सर्वपावनः-सबको पवित्र करनेवाले, 980 श्रृंगीः-सिंगी नामक बाजा अपने पास रखनेवाले, 981 श्रृंगप्रियः-पर्वत-शिखरको पसंद करनेवाले, 982 बभ्रूः-विष्णुस्वरूप, 983 राजराजः-राजाओंके राजा, 984 निरामयः-सर्वथा दोषरहित। 985 अभिरामः-आनन्ददायक, 986 सुरगणः-देवसमुदायरूप, 987 विरामः-सबसे उपरत, 988 सर्वसाधनः-सभी साधनोंद्वारा साध्य, 989 ललाटाक्षः-ललाटमें तीसरा नेत्र धारण करनेवाले, 990 विश्वदेवः-सम्पूर्ण विष्वके द्वारा क्रीड़ा करनेवाले, 991 हरिणः-मृगरूप, 992 ब्रहावर्चसः-ब्रहातेजसे सम्पन्न। 993 स्थावराणां पतिः-पर्वतोंके स्वामी हिमाचलादिरूप, 994 नियमेन्द्रियवर्धनः-नियमोंद्वारा मनसहित इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, 995 सिद्धार्थः-आप्तकाम, 996 सिद्धभूतार्थः-जिसके समस्त प्रयोजन सिद्ध हैं, 997 अचिन्त्यः-चितकी पहुंचसे परे, 998 सत्यव्रतः-सत्यप्रतिज्ञ, 999शुचिः-सर्वथा शुद्ध। 1000 व्रताधिपः-व्रतोंके अधिपति, 1001 परम्-सर्वश्रेष्ठ, 1002 ब्रहा-देश,काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न चिन्मयतत्व, 1003 भक्तानां परमा गतिः- भक्तोंके लिये परम गतिस्वरूप, 1004 विमुक्तः-नित्य मुक्त, 1005 मुक्ततेजाः-शत्रुओंपर तेज छोड़नेवाले, 1006 श्रीमान्-योगैश्वर्यसे सम्पन्न, 1007 श्रीवर्धनः-भक्तोंकी सम्पतिको बढ़ानेवाले, 1008 जगत्-जगत्स्वरूप। श्रीकृष्ण! इस प्रकार बहुत-से नामोंमें से प्रधान-प्रधान नाम चुनकर मैंने उनके द्वारा भक्तिपूर्वक भगवान् शकर का स्तवन किया। जिन्हें ब्रहा आदि देवता तथा ऋषि भी तत्वसे नहीं जानते। उन्हीं स्तवनके योग्य, अर्चनीय और वन्दनीय जगत्पति शिवकी कौन स्तुति करेगा ? इस तरह भक्तिके द्वारा भगवान को सामने रखते हुए मैंने उन्हींसे आज्ञा लेकर उन बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ भगवान् यज्ञपतिकी स्तुति की। जो सदा योगयुक्त एवं पवित्रभाव से रहनेवाला भक्त इन पुष्टिवर्धक नामोंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति करता हैं, वह स्वयं ही उन परमात्मा शिवको प्राप्त कर लेता है। यह उतम वेदतुल्य स्तोत्र परब्रहा परमात्मा-स्वरूप शिवको अपना लक्ष्य बनाता है। ऋषि और देवता भी उसके द्वारा उन परमात्मा शिवकी स्तुति करते है। जो लोग मनको संयममें रखकर इन नामों द्वारा भक्तवत्यल्य तथा आत्मनिष्ठा प्रदान करनेवाले भगवान् महादेवकी स्तुति करते है, उनपर वे बहुत संतुष्ट होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में जो प्रधानतः आस्तिक और श्रद्धालु हैं तथा अनेक जन्मतक की हुई स्तुति एवं भक्तिके प्रभावसे मन, वाणी,क्रिया तथा प्रेमभावके द्वारा सोते-जागते, चलते-बैठते और आंखोके खोलते-मीचते समय भी सदा अनन्यभाव से उन परम सनातनदेव जगदीश्वर शिवका बारंबार ध्यान करते हैं, वे अमित तेजसे सम्पन्न हो जाते हैं तथा जो उन्हींके विषयमें सुनते-सुनाते एवं उन्हींकी महिमाका कथोपकथन करते हुए इस स्तोत्राद्वारा सदा उनकी स्तुति करते है, वे स्वयं भी स्तुत्य होकर सदा संतुष्ट होते है और रमण करते हैं। कोटि सहस्त्र जन्मोंतक नाना प्रकारकी संसारी योनियोंमे भटकते-भटकते जब कोई जीव सर्वथा पापोंसे रहित हो जाता है, तब उसकी भगवान् शिवमें भक्ति होती है। भाग्यसे जो सर्वसाधनस्वरूप हो गया है, उसको जगत के कारण भगवान् शिवमें सम्पूर्णभावसे सर्वथा अनन्य भक्ति प्राप्त होती है। रूद्रवमें निश्चल एवं निर्विध्नरूपसे अनन्य-भक्ति हो जाय-यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। मनुष्यों में तो प्रायः ऐसी भक्ति स्वतः नहीं उपलब्ध होती है। भगवान् शकरकी कृपासे ही मनुष्यों के हदयमें उनकी अनन्यभक्ति उत्पन्न होती है, जिससे वे अपने चितको उन्हींके चिन्तनमें लगाकर परमसिद्धिको प्राप्त होते है। जो सम्पूर्ण भावसे अनुगत होकर महेश्वरकी शरण लेते हैं, शरणागतवत्सल महादेवजी इस संसारसे उनका उद्धार कर देते हैं। इसी प्रकार भगवान कि स्तुति द्वारा अन्य देवगण भी अपने संसार बन्धन का नाश करते है; क्योंकि महादेवजीकी सरण लेनेके सिवा ऐसी दूसरी कोई शक्ति या तपका बल नहीं है जिससे मनुष्योंका संसारबन्धनसे छुटकारा हो सके। श्रीकृष्ण! यह सोचकर उन इन्द्र के समान तेजस्वी एवं कल्याणमयी बुद्धिवाले तण्डि मुनिने गजचर्मधारी एवं समस्त कार्यकारणके स्वामी भगवान् शिवकी स्तुति की। भगवान् शकरके इस स्तोत्र को ब्रहमाजीने स्वयं अपने हदयमें धारण किया है। वे भगवान् शिवके समीप इस वेदतुल्य स्तुतिका गान करते रहते अतः सबको इस स्तोत्रका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। यह परम पवित्र, पुण्यजनक तथा सर्वदा सब पापोंका नाश करनेवाला है। यह योग, मोक्ष, स्वर्ग और संतोष-सब कुछ देनेवाला है। जो लोग अनन्यभक्तिभावसे भगवान् शिवके स्वरूप-भूत इस स्तोत्रका पाठ करते हैं उन्हें वही गति प्राप्त होती है जो सांख्यवेताओं और योगियोंको मिलती है। जो भक्त भगवान् शकरके समीप एक वर्षतक सदा प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करता है वह मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है। यह परम रहस्यमय स्तोत्र ब्रहाजीके हदयमें स्थित है। ब्रहमाजीने इन्द्रको इसका उपदेश दिया और इन्द्रने मृत्युको। मृत्युने एकादश रूद्रोंको इसका उपदेश किया। रूद्रोंसे तण्डिको इसकी प्राप्ति हुई। तण्डिने ब्रहमालोकमें ही बड़ी भारी तपस्या करके इसे प्राप्त किया था। माधव! तण्डिने शुक्रको, शुक्रने गौतमको और गौतमने वैवस्वतमनुको इसका उपदेष दिया। वैवस्वत मनुने समाधिनिष्ठ और ज्ञानी नारायण नामक किसी साध्यदेवताओं को यह स्तोत्र प्रदान किया। धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले उन पूजनीय नारायण नामक साध्यदेवने यमको इसका उपदेश किया। वृष्णिनन्दन! ऐश्वर्यशाली वैवस्वत यमने नाचिकेताके और नाचिकेतने मार्कण्डेय मुनिको यह स्तोत्र प्रदान किया। शत्रुसूदन जनार्दन! मार्कण्डेयजीसे मैंने नियमपूर्वक यह स्तोत्र ग्रहण किया था। अभी इस स्तोत्रकी अधिक प्रसिद्धि नहीं हुई है, अतः मैं तुम्हें इसका उपदेश देता हूं।  यह वेदतुल्य स्तोत्र स्वर्ग, आरोग्य, आयु तथा धन-धान्य प्रदान करनेवाला है। यक्ष, राक्षस, दानव, पिशाच, यातुधान, गुहाक, और नाग भी इसमें विध्न नहीं डाल पाते है। (श्रीकृष्ण कहते है)- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जो मनुष्य पवित्रभाव से ब्रहाचर्यके पालनपूर्वक इन्द्रियोंको संयममें रखकर एक वर्षतक योगयुक्त रहते हुए इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे अश्वमेघ यज्ञका फल मिलता है।
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508 यजुःपादभुजः- यजुर्वेद जिनके हाथ-पैर हैं, 509 गुहयः-गोपनीयस्वरूप, 510 प्रकाश-भक्तोंपर कृपा करके स्वयं ही उनके समक्ष अपनेको प्रकाशित कर देनेवाले, 511 जंगमः- चलने-फिरनेवाले, 512 अमोघार्थः- किसी वस्तुके लिये याचना करनेपर उसे अवश्य सफल होनेवाले, 513 प्रसादः- दया करके शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, 514 अभिगम्यः- सुगमतासे प्राप्त होनेयोग्य, 515सुदर्शनः- सुन्दर दर्शनवाले। 516 उपकारः- उपकार करनेवाले, 517 प्रियः- भक्तोंके प्रेमास्पद, 518 सर्वः- सर्वस्वरूप, 519 कनकः- सुवर्णस्वरूप, 520 कांचनच्छविः- कांचनके समान कमनीय कान्तिवाले, 521 नाभिः- समस्त भुवनका मध्यदेशरूप, 522 नन्दिकरः- आनन्द देनेवाले, 523 भावः- श्रद्धा-भक्तिस्वरूप, 524 पुष्करस्थपतिः- ब्रहाणडरूपी पुष्करका निर्माण करनेवाले, 525 स्थिरः- स्थिरस्वरूप, 526 द्वादश-ग्यारह रूद्रोसे श्रेष्ठ बारहवे रूद्र, 527 त्रासनः-संहारकारी होने कारण भयजनक, 529 आद्यः-सबके आदि कारण, 530 यज्ञसमाहितः-यज्ञमें उपस्थित रहनेवाले, 531 नक्तम्- प्रलयकालकी रात्रिस्वरूप, 532 कलिः-कलिके स्वरूप, 533 कालः- सबको अपना ग्रास बनानेवाले कालरूप, 524 मकरः- मकराकार शिशुसार चक्र, 535 कालपूजितः- काल अर्थात् मृत्युके द्वारा पूजित। 536 सगणः- प्रमथ आदि गणोंसे युक्त, 537 गणकारः- बाणासुर आदि भक्तोंको अपने गणमें सम्मिलित करनेवाले, 538 भूतवाहनसारथिः- त्रिपुर-विनाशके लिये समस्त प्राणियोंके योगक्षेमका निर्वाह करनेवाले ब्रहाजीको सारथि बनाने वाले, 539 भस्मषयः- भस्मपर शयन करनेवाले, 540 भस्मगोप्ता- भस्मस्वरूवप, 541 भस्मभूतः- भस्मस्वरूप, 542 तरूः- कल्पवृक्षस्वरूप, 543 गणः-भृंगिरिटि और नन्दिकेश्वर आदि पार्षदरूप।
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544 लोकपालः- चतुर्दश भुवनोंका पालन करनेवाले, 545 अलोकः- लोकातीत, 546महात्मा-, 547 सर्वपूजितः- सबके द्वारा पूजित, 548शुक्लः- शुद्धस्वरूप, 549 त्रिशुक्लः- मन,वाणी और शरीर ये तीनों, 550 सम्पन्नः- सम्पूबर्ण सम्पदाओंसे युक्त, 551शुचिः-परम पवित्र, 552 भूतनिशेवितः- समस्त प्राणियोंद्वारा सेवित। 553 आश्रमस्थः- चारों आश्रमोंमें धर्मस्वरूपसे स्थित रहनेवाले, 554 क्रियावस्थः-यज्ञादि क्रियाओंमें संलग्न, 555 विश्वकर्ममतिः-संसारकी रचनारूप कर्ममें कुशल, 556 वरः- सर्वश्रेष्ठ, 557 विशालशाखः-लंबी भुजाओंवाले, 558 ताम्रोष्ठः- लाल-लाल आठवाले, 559 अम्बुजालः-जलसमूह-सागररूप, 560 सुनिष्चलः- सर्वथा निश्चलरूप। 561 कपिलः- कपिल वर्ण, 562 कपिषः- पीले वर्णवाले, 563शुक्लः-श्वेत वर्णवाले, 564 आयुः-जीवनरूप, 565 परः-प्राचीन, 566 अपनः-अर्वाचीन, 567 गन्धर्वः-चित्ररथ आदि गन्धर्वरूप, 568 अदितिः- देवमाता अदितिस्वरूप, 569 ताक्ष्यं- विनतानन्दन गरूडरूप, 570 सुविज्ञेयः- सुगमतापूर्वक जानने योग्य, 571 सुषारदः-उत्तिम वाणी बोलनेवाले। 572 परश्वधायुधः-फरसेका आयुधके रूपमें उपयोग करनेवाले परशुरामरूप, 573 देवः-महादेवस्वरूप, 574 अनुकारी-भक्तोंका अनुकरण करनेवाले, 575 सुबान्धवः- उत्त,म बान्धवरूप, 576 तुम्बवीणः7 तूंबीकी वीणा बजानेवाले, 577 महाक्रोधः- प्रलयकालमें महान् क्रोध प्रकट करनेवाले, 578 उध्र्वरेताः-अस्खलितवीर्य, 579 जलेशयः- विष्णुरूपसे जलमें शयन करनेवाले। 580 उग्रः- प्रलयकालमें भयंकर रूप धारण करनेवाले, 581 वंशकरः-वंशप्रवर्तक, 582 वंश- वंशस्वरूप, 583 वंशनादः- श्रीकृष्णरूपसे वंशी बजानेवाले, 584 अनिन्दितः- निन्दारहित, 585 सर्वांगरूपः- सर्वांग पूर्णस्वरूपवाले, 586 मायावीः-, 587 सुहदः- हेतुरहित दयालु, 588 अनिलः- वायुस्वरूप,589 अनलः- अग्निस्वरूप। 590 बन्धनः- स्नेहबन्धनमें बांधनेवाले, 591 बन्धकर्ता- बन्धनरूप संसारके निर्माता, 592 सुबन्धनविमोचनः- मायाके सुदृढ़ बन्धनसे छुड़ानेवाले, 593 सयज्ञारिः- दक्षयज्ञ-शत्रुओंके साथी, 594 सकामारिः- कामविजयी योगियोंके साथी, 595 महादंष्टः- बड़ी-बड़ी दाढ़वाले नरसिंहरूप, 596 महायुधः-विशाल आयुधधारी। 597 बहुधा निन्दितः-दक्ष और उनके समर्थकोंद्वारा अनेक प्रकारसे निन्दित, 598 सर्वः-प्रलयकालमें सबका संहार करनेवाले, 599शकरः-कल्याणकारी, 600शकरः- भक्तोंको आनन्द देनेवाले, 601 अधनः-सांसारिक धनसे रहित, 602 अमरेषः-देवताओंके भी ईश्वर, 603 महादेवः- देवताओंके भी पूजनीय, 604 विश्वदेवः-सम्पूर्ण विश्वके आराध्यदेव, 605 सुरारिहाः- देवशत्रुओं वध करनेवाले। 606 अहिर्बुध्न्यः- शेषनागस्वरूप, 607 अनिलाभः-वायुके समान वेगवान्, 608 चेकितानः- अतिशय ज्ञानसम्पन्न, 609 हविः- हविष्यरूप, 610 अजैकपाद्-ग्यारह रूद्रोंमेंसे एक, 611 कापाल-दो कपालोंसे निर्मित कपालरूप अखिल के अधीश्वर, 612 त्रिशकुः-त्रिशकुरूप, 613 अजितः-किसीके द्वारा पराजित न होनेवाले, 614शिवः-कल्याणस्वरूप। 615 धन्वन्तरिः-महावैद्य धन्वन्तरिरूप, 616 धूमकेतुः-अग्निस्वरूप, 617 स्कन्दः-स्वामी कार्तिकेयस्वरूप, 618 वैश्रवणः- कुबेरस्वरूप, 619 धाता-सबको धारण करनेवाले, 620शक्रः-इन्द्रस्वरूप, 621 विष्णुः-सर्वव्यापी नारायणदेव, 622 मित्रः-बारह आदित्योंमेंसे एक, 623 त्वष्टा-प्रजापति विश्वकर्मा, 624 ध्रुवः-नित्यस्वरूप, 625 धरः-आठ वसुओंमेंसे एक वसु धरस्वरूप। 626 प्रभावः-उत्कृष्टभावसे सम्पन्न, 627 सर्वगो वायुः-सर्वव्यापी वायु-सूत्रात्मा, 628 अर्यमा-बारह आदित्योंमें एक आदित्य अर्यमारूप, 629 सविता-सम्पूर्ण जगत कि उत्पति करनेवाले, 630 रविः-सूर्य, 631 उषंगुः-सर्वदाहक किरणोंवाले सूर्यरूप, 632 विधाता-प्रजाका विशेषरूपसे धारण-पोषण करनेवाले, 633 मान्धाता-जीवको तृप्ति प्रदान करनेवाले, 634 भूतभावनः-समस्त प्राणियोंके उत्पादक।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें महादेवसहस्त्रनामस्तोत्रविषयक सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ।</div>
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 78-91|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 106-122}}
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 17 श्लोक 120-143|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 18 श्लोक 1-31}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]]
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]]
 
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१०:४६, २३ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

सप्तदश (17) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 92-105 का हिन्दी अनुवाद

508 यजुःपादभुजः- यजुर्वेद जिनके हाथ-पैर हैं, 509 गुहयः-गोपनीयस्वरूप, 510 प्रकाश-भक्तोंपर कृपा करके स्वयं ही उनके समक्ष अपनेको प्रकाशित कर देनेवाले, 511 जंगमः- चलने-फिरनेवाले, 512 अमोघार्थः- किसी वस्तुके लिये याचना करनेपर उसे अवश्य सफल होनेवाले, 513 प्रसादः- दया करके शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, 514 अभिगम्यः- सुगमतासे प्राप्त होनेयोग्य, 515सुदर्शनः- सुन्दर दर्शनवाले। 516 उपकारः- उपकार करनेवाले, 517 प्रियः- भक्तोंके प्रेमास्पद, 518 सर्वः- सर्वस्वरूप, 519 कनकः- सुवर्णस्वरूप, 520 कांचनच्छविः- कांचनके समान कमनीय कान्तिवाले, 521 नाभिः- समस्त भुवनका मध्यदेशरूप, 522 नन्दिकरः- आनन्द देनेवाले, 523 भावः- श्रद्धा-भक्तिस्वरूप, 524 पुष्करस्थपतिः- ब्रहाणडरूपी पुष्करका निर्माण करनेवाले, 525 स्थिरः- स्थिरस्वरूप, 526 द्वादश-ग्यारह रूद्रोसे श्रेष्ठ बारहवे रूद्र, 527 त्रासनः-संहारकारी होने कारण भयजनक, 529 आद्यः-सबके आदि कारण, 530 यज्ञसमाहितः-यज्ञमें उपस्थित रहनेवाले, 531 नक्तम्- प्रलयकालकी रात्रिस्वरूप, 532 कलिः-कलिके स्वरूप, 533 कालः- सबको अपना ग्रास बनानेवाले कालरूप, 524 मकरः- मकराकार शिशुसार चक्र, 535 कालपूजितः- काल अर्थात् मृत्युके द्वारा पूजित। 536 सगणः- प्रमथ आदि गणोंसे युक्त, 537 गणकारः- बाणासुर आदि भक्तोंको अपने गणमें सम्मिलित करनेवाले, 538 भूतवाहनसारथिः- त्रिपुर-विनाशके लिये समस्त प्राणियोंके योगक्षेमका निर्वाह करनेवाले ब्रहाजीको सारथि बनाने वाले, 539 भस्मषयः- भस्मपर शयन करनेवाले, 540 भस्मगोप्ता- भस्मस्वरूवप, 541 भस्मभूतः- भस्मस्वरूप, 542 तरूः- कल्पवृक्षस्वरूप, 543 गणः-भृंगिरिटि और नन्दिकेश्वर आदि पार्षदरूप। 544 लोकपालः- चतुर्दश भुवनोंका पालन करनेवाले, 545 अलोकः- लोकातीत, 546महात्मा-, 547 सर्वपूजितः- सबके द्वारा पूजित, 548शुक्लः- शुद्धस्वरूप, 549 त्रिशुक्लः- मन,वाणी और शरीर ये तीनों, 550 सम्पन्नः- सम्पूबर्ण सम्पदाओंसे युक्त, 551शुचिः-परम पवित्र, 552 भूतनिशेवितः- समस्त प्राणियोंद्वारा सेवित। 553 आश्रमस्थः- चारों आश्रमोंमें धर्मस्वरूपसे स्थित रहनेवाले, 554 क्रियावस्थः-यज्ञादि क्रियाओंमें संलग्न, 555 विश्वकर्ममतिः-संसारकी रचनारूप कर्ममें कुशल, 556 वरः- सर्वश्रेष्ठ, 557 विशालशाखः-लंबी भुजाओंवाले, 558 ताम्रोष्ठः- लाल-लाल आठवाले, 559 अम्बुजालः-जलसमूह-सागररूप, 560 सुनिष्चलः- सर्वथा निश्चलरूप। 561 कपिलः- कपिल वर्ण, 562 कपिषः- पीले वर्णवाले, 563शुक्लः-श्वेत वर्णवाले, 564 आयुः-जीवनरूप, 565 परः-प्राचीन, 566 अपनः-अर्वाचीन, 567 गन्धर्वः-चित्ररथ आदि गन्धर्वरूप, 568 अदितिः- देवमाता अदितिस्वरूप, 569 ताक्ष्यं- विनतानन्दन गरूडरूप, 570 सुविज्ञेयः- सुगमतापूर्वक जानने योग्य, 571 सुषारदः-उत्तिम वाणी बोलनेवाले। 572 परश्वधायुधः-फरसेका आयुधके रूपमें उपयोग करनेवाले परशुरामरूप, 573 देवः-महादेवस्वरूप, 574 अनुकारी-भक्तोंका अनुकरण करनेवाले, 575 सुबान्धवः- उत्त,म बान्धवरूप, 576 तुम्बवीणः7 तूंबीकी वीणा बजानेवाले, 577 महाक्रोधः- प्रलयकालमें महान् क्रोध प्रकट करनेवाले, 578 उध्र्वरेताः-अस्खलितवीर्य, 579 जलेशयः- विष्णुरूपसे जलमें शयन करनेवाले। 580 उग्रः- प्रलयकालमें भयंकर रूप धारण करनेवाले, 581 वंशकरः-वंशप्रवर्तक, 582 वंश- वंशस्वरूप, 583 वंशनादः- श्रीकृष्णरूपसे वंशी बजानेवाले, 584 अनिन्दितः- निन्दारहित, 585 सर्वांगरूपः- सर्वांग पूर्णस्वरूपवाले, 586 मायावीः-, 587 सुहदः- हेतुरहित दयालु, 588 अनिलः- वायुस्वरूप,589 अनलः- अग्निस्वरूप। 590 बन्धनः- स्नेहबन्धनमें बांधनेवाले, 591 बन्धकर्ता- बन्धनरूप संसारके निर्माता, 592 सुबन्धनविमोचनः- मायाके सुदृढ़ बन्धनसे छुड़ानेवाले, 593 सयज्ञारिः- दक्षयज्ञ-शत्रुओंके साथी, 594 सकामारिः- कामविजयी योगियोंके साथी, 595 महादंष्टः- बड़ी-बड़ी दाढ़वाले नरसिंहरूप, 596 महायुधः-विशाल आयुधधारी। 597 बहुधा निन्दितः-दक्ष और उनके समर्थकोंद्वारा अनेक प्रकारसे निन्दित, 598 सर्वः-प्रलयकालमें सबका संहार करनेवाले, 599शकरः-कल्याणकारी, 600शकरः- भक्तोंको आनन्द देनेवाले, 601 अधनः-सांसारिक धनसे रहित, 602 अमरेषः-देवताओंके भी ईश्वर, 603 महादेवः- देवताओंके भी पूजनीय, 604 विश्वदेवः-सम्पूर्ण विश्वके आराध्यदेव, 605 सुरारिहाः- देवशत्रुओं वध करनेवाले। 606 अहिर्बुध्न्यः- शेषनागस्वरूप, 607 अनिलाभः-वायुके समान वेगवान्, 608 चेकितानः- अतिशय ज्ञानसम्पन्न, 609 हविः- हविष्यरूप, 610 अजैकपाद्-ग्यारह रूद्रोंमेंसे एक, 611 कापाल-दो कपालोंसे निर्मित कपालरूप अखिल के अधीश्वर, 612 त्रिशकुः-त्रिशकुरूप, 613 अजितः-किसीके द्वारा पराजित न होनेवाले, 614शिवः-कल्याणस्वरूप। 615 धन्वन्तरिः-महावैद्य धन्वन्तरिरूप, 616 धूमकेतुः-अग्निस्वरूप, 617 स्कन्दः-स्वामी कार्तिकेयस्वरूप, 618 वैश्रवणः- कुबेरस्वरूप, 619 धाता-सबको धारण करनेवाले, 620शक्रः-इन्द्रस्वरूप, 621 विष्णुः-सर्वव्यापी नारायणदेव, 622 मित्रः-बारह आदित्योंमेंसे एक, 623 त्वष्टा-प्रजापति विश्वकर्मा, 624 ध्रुवः-नित्यस्वरूप, 625 धरः-आठ वसुओंमेंसे एक वसु धरस्वरूप। 626 प्रभावः-उत्कृष्टभावसे सम्पन्न, 627 सर्वगो वायुः-सर्वव्यापी वायु-सूत्रात्मा, 628 अर्यमा-बारह आदित्योंमें एक आदित्य अर्यमारूप, 629 सविता-सम्पूर्ण जगत कि उत्पति करनेवाले, 630 रविः-सूर्य, 631 उषंगुः-सर्वदाहक किरणोंवाले सूर्यरूप, 632 विधाता-प्रजाका विशेषरूपसे धारण-पोषण करनेवाले, 633 मान्धाता-जीवको तृप्ति प्रदान करनेवाले, 634 भूतभावनः-समस्त प्राणियोंके उत्पादक।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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