"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-55": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">प्राणियों की शुभ और अशुभ गति का निश्च्य कराने वाले लक्षणों का वर्णन,मृत्यु के दो भेद और यत्रसाध्य मृत्यु के चार भेंदों का कथन,कर्तव्य-पालनपूर्वक शरीर त्याग का महान फल और काम,क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति</h4>
<h4 style="text-align:center;">प्राणियों की शुभ और अशुभ गति का निश्च्य कराने वाले लक्षणों का वर्णन,मृत्यु के दो भेद और यत्रसाध्य मृत्यु के चार भेंदों का कथन,कर्तव्य-पालनपूर्वक शरीर त्याग का महान फल और काम,क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-55 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-55 का हिन्दी अनुवाद</div>


क्षत्रिय के लिये दीन-दुखियों की रक्षा और प्रजापालन के निमित्त प्राणत्याग अभीष्ट बताया गया है। योद्धा अपने स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये, ब्रह्मचारी गुरू के हित के लिये तथा सब लोग गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये अपने प्राणों को निछावर कर दें, यह शास्त्र का विधान है। राजा अपने राज्य की रक्षा के लिये अथवा दुष्ट नरेशों द्वारा पीडि़त हुई प्रजा को संकट से छुड़ाने के लिये विधिपूर्वक युद्ध के मार्ग पर चलकर प्राणों का परित्याग करे। जो राजा कवच बाँधकर मन में दृढ़ निश्चय ले युद्ध में प्रवेश करके पीठ नहीं दिखाता और शत्रुओं का सामना करता हुआ मारा जाता है, वह तत्काल स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। सामान्यतः सबके लिये और विशेषतः क्षत्रिय के लिये वैसी उत्तम गति दूसरी नहीं है। जो भृत्य स्वामी के अन्न का बदला देने के लिये उनका कार्य उपस्थित होने पर अपने प्राणों का मोह छोड़कर उनकी सहायताकरता है और स्वामी के लिये प्राण त्याग देता है, वह देवसमूहों के लिये स्पृहणीय हो पुण्यलोकों में जाता है। इस विषय में कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार जो गौओं, ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों की रक्षा के लिये शरीर का त्याग करता है, वह भी दयाधर्म को अपनाने के कारण पुण्यलोकों में जाता है। इस तरह ये प्राणत्याग के समुचित मार्ग तुम्हें बताये गये हैं। यदि कोई काम, क्रोध अथवा भय से शरीर का त्याग करे तो वह आत्महत्या करने के कारण अनन्त नरक में जाता है। स्वाभाविक मृत्यु वह है, जो अपनी इच्छा से नहीं होती, स्वतः प्राप्त हो जाती है। उसमें जिस प्रकार मरे हुए लोगों के लिये जो कर्तव्य है, वह मुझसे विधिपूर्वक सुनो। उसमें भी जो मरण या त्याग होता है, वह किसी मूर्ख के देहत्याग से बढ़कर है। मरने वाले मनुष्य के शरीर को पृथ्वी पर लिटा देना चाहिये और जब प्राण निकल जाय, तब तत्काल उसके शरीर को नूतन वस्त्र से ढक देना चाहिये। भामिनि! फिर उसे माला, गन्ध और सुवर्ण से अलंकृत करके श्मशान-भूमि में दक्षिण दिशा की ओर चिता की आग में उस शव को जला देना चाहिये। अथवा निर्जीव शरीर को वहाँ भूमि पर ही डाल दे। दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण का समय मुमूर्षुओं के लिये उत्तम है। इसके विपरीत रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन निन्दित है। बहुत से पुरूषों द्वारा किया गया जलदान और अष्ट का श्राद्ध परलोक में मृत पुरूषों को तृप्त करने वाला और शुभ होता है। यह सब मैंने मनुष्यों के लिये हितकारक बात बतायी है।
क्षत्रिय के लिये दीन-दुखियों की रक्षा और प्रजापालन के निमित्त प्राणत्याग अभीष्ट बताया गया है। योद्धा अपने स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये, ब्रह्मचारी गुरू के हित के लिये तथा सब लोग गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये अपने प्राणों को निछावर कर दें, यह शास्त्र का विधान है। राजा अपने राज्य की रक्षा के लिये अथवा दुष्ट नरेशों द्वारा पीडि़त हुई प्रजा को संकट से छुड़ाने के लिये विधिपूर्वक युद्ध के मार्ग पर चलकर प्राणों का परित्याग करे। जो राजा कवच बाँधकर मन में दृढ़ निश्चय ले युद्ध में प्रवेश करके पीठ नहीं दिखाता और शत्रुओं का सामना करता हुआ मारा जाता है, वह तत्काल स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। सामान्यतः सबके लिये और विशेषतः क्षत्रिय के लिये वैसी उत्तम गति दूसरी नहीं है। जो भृत्य स्वामी के अन्न का बदला देने के लिये उनका कार्य उपस्थित होने पर अपने प्राणों का मोह छोड़कर उनकी सहायताकरता है और स्वामी के लिये प्राण त्याग देता है, वह देवसमूहों के लिये स्पृहणीय हो पुण्यलोकों में जाता है। इस विषय में कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार जो गौओं, ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों की रक्षा के लिये शरीर का त्याग करता है, वह भी दयाधर्म को अपनाने के कारण पुण्यलोकों में जाता है। इस तरह ये प्राणत्याग के समुचित मार्ग तुम्हें बताये गये हैं। यदि कोई काम, क्रोध अथवा भय से शरीर का त्याग करे तो वह आत्महत्या करने के कारण अनन्त नरक में जाता है। स्वाभाविक मृत्यु वह है, जो अपनी इच्छा से नहीं होती, स्वतः प्राप्त हो जाती है। उसमें जिस प्रकार मरे हुए लोगों के लिये जो कर्तव्य है, वह मुझसे विधिपूर्वक सुनो। उसमें भी जो मरण या त्याग होता है, वह किसी मूर्ख के देहत्याग से बढ़कर है। मरने वाले मनुष्य के शरीर को पृथ्वी पर लिटा देना चाहिये और जब प्राण निकल जाय, तब तत्काल उसके शरीर को नूतन वस्त्र से ढक देना चाहिये। भामिनि! फिर उसे माला, गन्ध और सुवर्ण से अलंकृत करके श्मशान-भूमि में दक्षिण दिशा की ओर चिता की आग में उस शव को जला देना चाहिये। अथवा निर्जीव शरीर को वहाँ भूमि पर ही डाल दे। दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण का समय मुमूर्षुओं के लिये उत्तम है। इसके विपरीत रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन निन्दित है। बहुत से पुरूषों द्वारा किया गया जलदान और अष्ट का श्राद्ध परलोक में मृत पुरूषों को तृप्त करने वाला और शुभ होता है। यह सब मैंने मनुष्यों के लिये हितकारक बात बतायी है।

०७:४४, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

प्राणियों की शुभ और अशुभ गति का निश्च्य कराने वाले लक्षणों का वर्णन,मृत्यु के दो भेद और यत्रसाध्य मृत्यु के चार भेंदों का कथन,कर्तव्य-पालनपूर्वक शरीर त्याग का महान फल और काम,क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-55 का हिन्दी अनुवाद

क्षत्रिय के लिये दीन-दुखियों की रक्षा और प्रजापालन के निमित्त प्राणत्याग अभीष्ट बताया गया है। योद्धा अपने स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये, ब्रह्मचारी गुरू के हित के लिये तथा सब लोग गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये अपने प्राणों को निछावर कर दें, यह शास्त्र का विधान है। राजा अपने राज्य की रक्षा के लिये अथवा दुष्ट नरेशों द्वारा पीडि़त हुई प्रजा को संकट से छुड़ाने के लिये विधिपूर्वक युद्ध के मार्ग पर चलकर प्राणों का परित्याग करे। जो राजा कवच बाँधकर मन में दृढ़ निश्चय ले युद्ध में प्रवेश करके पीठ नहीं दिखाता और शत्रुओं का सामना करता हुआ मारा जाता है, वह तत्काल स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। सामान्यतः सबके लिये और विशेषतः क्षत्रिय के लिये वैसी उत्तम गति दूसरी नहीं है। जो भृत्य स्वामी के अन्न का बदला देने के लिये उनका कार्य उपस्थित होने पर अपने प्राणों का मोह छोड़कर उनकी सहायताकरता है और स्वामी के लिये प्राण त्याग देता है, वह देवसमूहों के लिये स्पृहणीय हो पुण्यलोकों में जाता है। इस विषय में कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार जो गौओं, ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों की रक्षा के लिये शरीर का त्याग करता है, वह भी दयाधर्म को अपनाने के कारण पुण्यलोकों में जाता है। इस तरह ये प्राणत्याग के समुचित मार्ग तुम्हें बताये गये हैं। यदि कोई काम, क्रोध अथवा भय से शरीर का त्याग करे तो वह आत्महत्या करने के कारण अनन्त नरक में जाता है। स्वाभाविक मृत्यु वह है, जो अपनी इच्छा से नहीं होती, स्वतः प्राप्त हो जाती है। उसमें जिस प्रकार मरे हुए लोगों के लिये जो कर्तव्य है, वह मुझसे विधिपूर्वक सुनो। उसमें भी जो मरण या त्याग होता है, वह किसी मूर्ख के देहत्याग से बढ़कर है। मरने वाले मनुष्य के शरीर को पृथ्वी पर लिटा देना चाहिये और जब प्राण निकल जाय, तब तत्काल उसके शरीर को नूतन वस्त्र से ढक देना चाहिये। भामिनि! फिर उसे माला, गन्ध और सुवर्ण से अलंकृत करके श्मशान-भूमि में दक्षिण दिशा की ओर चिता की आग में उस शव को जला देना चाहिये। अथवा निर्जीव शरीर को वहाँ भूमि पर ही डाल दे। दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण का समय मुमूर्षुओं के लिये उत्तम है। इसके विपरीत रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन निन्दित है। बहुत से पुरूषों द्वारा किया गया जलदान और अष्ट का श्राद्ध परलोक में मृत पुरूषों को तृप्त करने वाला और शुभ होता है। यह सब मैंने मनुष्यों के लिये हितकारक बात बतायी है।


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