"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 125-142" के अवतरणों में अंतर

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इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में [[सुभद्रा]] और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक [[अभिमन्यु]] के जन्म की कथा है। तदनन्तर [[देवकी |देवकी नन्दन]] भगवान् श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्निकाण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद [[महर्षि|महर्षि मन्दपालका]] शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की है। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन है। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नामक राक्षसों का दिखना, [[नारद|देवर्षि नारद]] द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभापर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर [[दुर्योधन]] दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर [[भीम|भीमसेन]] ने उसका उपहास किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान [[धृतराष्ट्र]] ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने  
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इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में [[सुभद्रा]] और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक [[अभिमन्यु]] के जन्म की कथा है। तदनन्तर [[देवकी |देवकी नन्दन]] भगवान  श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्निकाण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद [[महर्षि|महर्षि मन्दपालका]] शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की है। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन है। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नामक राक्षसों का दिखना, [[नारद|देवर्षि नारद]] द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभापर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर [[दुर्योधन]] दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर [[भीम|भीमसेन]] ने उसका उपहास किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान [[धृतराष्ट्र]] ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने  
 
- उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। [[व्यास|महर्षि व्यास]] ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है।
 
- उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। [[व्यास|महर्षि व्यास]] ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है।
 
श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गयी है। इसके पश्चात महत्वपूर्ण वनपर्व का आरम्भ होता है।  
 
श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गयी है। इसके पश्चात महत्वपूर्ण वनपर्व का आरम्भ होता है।  
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१२:०८, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 125-142 का हिन्दी अनुवाद

इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। तदनन्तर देवकी नन्दन भगवान श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्निकाण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद महर्षि मन्दपालका शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की है। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन है। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नामक राक्षसों का दिखना, देवर्षि नारद द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभापर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर भीमसेन ने उसका उपहास किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने - उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। महर्षि व्यास ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गयी है। इसके पश्चात महत्वपूर्ण वनपर्व का आरम्भ होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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