"महाभारत सभा पर्व अध्याय 36 श्लोक 15-32" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
‘पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक साक्षात् उन्हीं भगवान ने देवताओं को यह आदेश दिया था कि तुम लोग भूतल पर जनम ग्रहण करके अपना अभीष्ट साधन करते हुए आपस में एक दूसरे को मारकर फिर देवलोक में आ जाओंगे। ‘कलयाणस्वरूप भूतभावन भगवान नारायण ने सब देवताओं को यह आज्ञा देने के पश्चात स्वयं भी यदुकुल में अवतार लिया। ‘अन्धक और वृष्णियों के कुल में वंशधारियों श्रेष्ठ वे ही भगवान् इस पृथ्वी पर प्रकट हो अपनी सर्वोत्तम कान्ति से उसी प्रकार शोभायमान हैं, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। ‘इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं, वे ही शत्रुमर्दन श्रीहरि यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। ‘अहो! ये स्वयम्भू महाविष्णु ऐसे बलसम्पन्न क्षत्रिय समुदाय को पुन: उच्छिन्न करता चाहते हैं’। धर्मज्ञ नारदजी ने इसी पुरातन वृत्तान्त का समरण किया और ये भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा आराधनीय, सर्वेश्वर नारायण हैं, ऐसा समझकर वे धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान देवर्षि मेधावी धर्मराज के उस महायज्ञ में बड़े आदर के साथ बैठे रहे। जनमेजय! तत्पश्चात भीष्मजी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘भरतकुल भूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छाहों को अर्ध्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ‘ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्ध्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्ध्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्ध्य समर्पित करो’। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्ध्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुण्े बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान भीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना। भीष्म ने कहा- कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ्रह नक्षत्रों में भुवन भासकर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)। भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्ध्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्ध्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नही सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान् वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।  
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‘पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक साक्षात् उन्हीं भगवान ने देवताओं को यह आदेश दिया था कि तुम लोग भूतल पर जनम ग्रहण करके अपना अभीष्ट साधन करते हुए आपस में एक दूसरे को मारकर फिर देवलोक में आ जाओंगे। ‘कलयाणस्वरूप भूतभावन भगवान नारायण ने सब देवताओं को यह आज्ञा देने के पश्चात स्वयं भी यदुकुल में अवतार लिया। ‘अन्धक और वृष्णियों के कुल में वंशधारियों श्रेष्ठ वे ही भगवान  इस पृथ्वी पर प्रकट हो अपनी सर्वोत्तम कान्ति से उसी प्रकार शोभायमान हैं, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। ‘इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं, वे ही शत्रुमर्दन श्रीहरि यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। ‘अहो! ये स्वयम्भू महाविष्णु ऐसे बलसम्पन्न क्षत्रिय समुदाय को पुन: उच्छिन्न करता चाहते हैं’। धर्मज्ञ नारदजी ने इसी पुरातन वृत्तान्त का समरण किया और ये भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा आराधनीय, सर्वेश्वर नारायण हैं, ऐसा समझकर वे धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान देवर्षि मेधावी धर्मराज के उस महायज्ञ में बड़े आदर के साथ बैठे रहे। जनमेजय! तत्पश्चात भीष्मजी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘भरतकुल भूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छाहों को अर्ध्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ‘ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्ध्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्ध्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्ध्य समर्पित करो’। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्ध्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुण्े बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान भीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना। भीष्म ने कहा- कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ्रह नक्षत्रों में भुवन भासकर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)। भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्ध्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्ध्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नही सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान  वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।  
  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरणपर्व में श्रीकृष्ण को अर्ध्यदानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरणपर्व में श्रीकृष्ण को अर्ध्यदानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  

१२:२५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षट्त्रिंश (36) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद

‘पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक साक्षात् उन्हीं भगवान ने देवताओं को यह आदेश दिया था कि तुम लोग भूतल पर जनम ग्रहण करके अपना अभीष्ट साधन करते हुए आपस में एक दूसरे को मारकर फिर देवलोक में आ जाओंगे। ‘कलयाणस्वरूप भूतभावन भगवान नारायण ने सब देवताओं को यह आज्ञा देने के पश्चात स्वयं भी यदुकुल में अवतार लिया। ‘अन्धक और वृष्णियों के कुल में वंशधारियों श्रेष्ठ वे ही भगवान इस पृथ्वी पर प्रकट हो अपनी सर्वोत्तम कान्ति से उसी प्रकार शोभायमान हैं, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। ‘इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं, वे ही शत्रुमर्दन श्रीहरि यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। ‘अहो! ये स्वयम्भू महाविष्णु ऐसे बलसम्पन्न क्षत्रिय समुदाय को पुन: उच्छिन्न करता चाहते हैं’। धर्मज्ञ नारदजी ने इसी पुरातन वृत्तान्त का समरण किया और ये भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा आराधनीय, सर्वेश्वर नारायण हैं, ऐसा समझकर वे धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान देवर्षि मेधावी धर्मराज के उस महायज्ञ में बड़े आदर के साथ बैठे रहे। जनमेजय! तत्पश्चात भीष्मजी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘भरतकुल भूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छाहों को अर्ध्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ‘ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्ध्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्ध्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्ध्य समर्पित करो’। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्ध्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुण्े बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान भीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना। भीष्म ने कहा- कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ्रह नक्षत्रों में भुवन भासकर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)। भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्ध्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्ध्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नही सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरणपर्व में श्रीकृष्ण को अर्ध्यदानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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