"महाभारत वन पर्व अध्याय 221 श्लोक 29-31": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 29-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 29-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
<center>अग्रि स्वरुप तप एवं भानु (मनु) की संतति का वर्णन</center> | <center>अग्रि स्वरुप तप एवं भानु (मनु) की संतति का वर्णन</center> | ||
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जो ब्राह्मण किसी पीड़ा से आतुर होकर तीन रात तक अग्रि होत्र न करे, उसे मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा ‘उत्तर’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये । जिसका चालू किया हुआ दर्श और पौर्णमास याग बीच में ही बंद हो जाय अथवा बिना आहुति किये ही रह जाय, उसे ‘पथिकृत्’ नामक अग्रि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा होम करना चाहिये । जब सूतिकागृह की अग्रि, अग्रि होत्र की अग्रि का स्पर्श कर ले, तब मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत पुरोडाश द्वारा ‘अग्रिमान्’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये । | जो ब्राह्मण किसी पीड़ा से आतुर होकर तीन रात तक अग्रि होत्र न करे, उसे मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा ‘उत्तर’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये । जिसका चालू किया हुआ दर्श और पौर्णमास याग बीच में ही बंद हो जाय अथवा बिना आहुति किये ही रह जाय, उसे ‘पथिकृत्’ नामक अग्रि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा होम करना चाहिये । जब सूतिकागृह की अग्रि, अग्रि होत्र की अग्रि का स्पर्श कर ले, तब मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत पुरोडाश द्वारा ‘अग्रिमान्’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये । | ||
इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेय | इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेय समस्या पर्व में आग्डि़रसोपाख्यान विषयक दो सौ इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ । | ||
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०९:५७, ३० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकविंशत्यधिकद्विशततम (221) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व )
महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 29-31 का हिन्दी अनुवाद
जो ब्राह्मण किसी पीड़ा से आतुर होकर तीन रात तक अग्रि होत्र न करे, उसे मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा ‘उत्तर’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये । जिसका चालू किया हुआ दर्श और पौर्णमास याग बीच में ही बंद हो जाय अथवा बिना आहुति किये ही रह जाय, उसे ‘पथिकृत्’ नामक अग्रि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा होम करना चाहिये । जब सूतिकागृह की अग्रि, अग्रि होत्र की अग्रि का स्पर्श कर ले, तब मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत पुरोडाश द्वारा ‘अग्रिमान्’ नामक अग्रि को आहुति देनी चाहिये ।
इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेय समस्या पर्व में आग्डि़रसोपाख्यान विषयक दो सौ इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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