"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 55-75": अवतरणों में अंतर

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==पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )==
==पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 123-144 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 55-75 का हिन्दी अनुवाद</div>


समरागंण में बाणों के समूह से घिरे हुए घटोत्कच को, उसके घो़डो़ को, रथ को तथा ध्वज को भी कोई नहीं देख पाते थे।  वह मायावी राक्षस कर्ण के दिव्यास्त्र को अपने अस्त्र द्वारा काटते हुए वहाँ सूत पुत्र के साथ मायामय युद्ध करने लगा। उस समय माया तथा शीघ्रकारिता के द्वारा वह कर्ण को लड़ा रहा था। आकाश से कर्ण पर अलक्षित बाणसमूहों की वर्षा हो रही थी। कुरुश्रेष्ठ! भरतनन्दन! वह विशालकाय महामायावी भीमसेनकुमार घटोत्कच माया से सबको मोहित करता हुआ सा सब ओर विचरने लगा। उसने माया द्वारा बहुत से विकराल एवं अमंगलसूचक मुख बनाकर सूत पुत्र के दिव्यास्त्रों को अपना ग्रास बना लिया। फिर वह महाकाय राक्षस धैर्यहीन एवं उत्साहशून्य सा होकर रणभूमि में आकाश से सैकड़ों टुकट़ों में कटकर गिरा हुआ दिखायी दिया। उस समय उसे मरा हुआ मानकर कौरव दल के प्रमुख वीर जोर-जोर से जर्जना करने लगे। इतने ही में वह दूसरे बहुत से नये-नये शरीर धारण करके सम्पूर्ण दिशाओं में दिखायी देने लगा। फिर वह बड़ी-बड़ी बाहों वाला एक ही विशालकाय रूप धारण करके मैनाक पर्वत के समान दृष्टिगोचर हुआ। उस समय उसके सौ मस्तक तथा सौ पेट हो गये थे। तत्पश्चात् वह राक्षस अँगूठे के बराबर होकर उछलती हुई समुद्र की लहर के समान कभी ऊपर और कभी इधर-उधर होने लगा। फिर पृथ्वी को फाड़कर वह पानी में डूब गया और दूसरी जगह पुनः जल से ऊपर आकर दिखायी देने लगा। इसके बाद आकाश से उतरकर वह पुनः अपने सुवर्ण मण्डित रथ पर स्थित हो गया और या से ही पृथ्वी, आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता हुआ कवच से सुसज्चित हो कर्ण के रथ के समीप जाकर विचरने लगा। उस समय उसका मुख कुण्डलों से सुशोभित हो रहा था। प्रजानाथ! अब घटोत्कच सम्भ्रमरहित हो सूत पुत्र कर्ण से बोला- 'सारथि के बेटे! खड़ा रह। अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायेगा? आज मैं समरागंण में तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूँगा'। क्रोध से लाल आँखें किये वह क्रूर पराक्रमी राक्षस उपर्युक्त बात कहकर आकाश में उछला और बड़े जोर से अट्टहासकरने लगा फिर जैसे सिंह गजराज पर चोट करता है, उसी प्रकार वह कर्ण पर आघात करनेलगा। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ कर्ण पररथ के धुरे के समान मोटे-मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। अपने ऊपर प्राप्तहुई उस बाणवर्षा को कर्ण ने दूर से ही काट गिराया। भरतश्रेष्ठ! कर्ण के द्वारा अपनी माया को नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षावलियों द्वरा हरे-भरे शिखरों से सुशोभित एक अत्यन्त ऊँचा महान् पर्वत बन गया और उससे पानी के झरने की भाँति शूल, प्रास, खडग और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों का स्रोत बहने लगा। घटोत्कच को अञ्जनराशि के समान काला पर्वत बनकर अपने झरनों द्वारा भयंकर अस्त्र-शस्त्रों को प्रवाहित करते देशकर भी कर्ण के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उसने मुसकराते हुए से अपना दिव्यास्त्र प्रकट किया। उस दिव्यास्त्र द्वारा दूर फेंका गया वह पर्वतराज क्षणभर में अदृश्य हो गया और पुनः आकाश में इन्द्रधनुषसहित काला मेघ बनकर वह अत्यन्त भयंकर राक्षस सूत पुत्र कर्ण पर पत्थरों की वर्षा करने लगा।  
समरागंण में बाणों के समूह से घिरे हुए घटोत्कच को, उसके घो़डो़ को, रथ को तथा ध्वज को भी कोई नहीं देख पाते थे।  वह मायावी राक्षस कर्ण के दिव्यास्त्र को अपने अस्त्र द्वारा काटते हुए वहाँ सूत पुत्र के साथ मायामय युद्ध करने लगा। उस समय माया तथा शीघ्रकारिता के द्वारा वह कर्ण को लड़ा रहा था। आकाश से कर्ण पर अलक्षित बाणसमूहों की वर्षा हो रही थी। कुरुश्रेष्ठ! भरतनन्दन! वह विशालकाय महामायावी भीमसेनकुमार घटोत्कच माया से सबको मोहित करता हुआ सा सब ओर विचरने लगा। उसने माया द्वारा बहुत से विकराल एवं अमंगलसूचक मुख बनाकर सूत पुत्र के दिव्यास्त्रों को अपना ग्रास बना लिया। फिर वह महाकाय राक्षस धैर्यहीन एवं उत्साहशून्य सा होकर रणभूमि में आकाश से सैकड़ों टुकट़ों में कटकर गिरा हुआ दिखायी दिया। उस समय उसे मरा हुआ मानकर कौरव दल के प्रमुख वीर जोर-जोर से जर्जना करने लगे। इतने ही में वह दूसरे बहुत से नये-नये शरीर धारण करके सम्पूर्ण दिशाओं में दिखायी देने लगा। फिर वह बड़ी-बड़ी बाहों वाला एक ही विशालकाय रूप धारण करके मैनाक पर्वत के समान दृष्टिगोचर हुआ। उस समय उसके सौ मस्तक तथा सौ पेट हो गये थे। तत्पश्चात् वह राक्षस अँगूठे के बराबर होकर उछलती हुई समुद्र की लहर के समान कभी ऊपर और कभी इधर-उधर होने लगा। फिर पृथ्वी को फाड़कर वह पानी में डूब गया और दूसरी जगह पुनः जल से ऊपर आकर दिखायी देने लगा। इसके बाद आकाश से उतरकर वह पुनः अपने सुवर्ण मण्डित रथ पर स्थित हो गया और या से ही पृथ्वी, आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता हुआ कवच से सुसज्चित हो कर्ण के रथ के समीप जाकर विचरने लगा। उस समय उसका मुख कुण्डलों से सुशोभित हो रहा था। प्रजानाथ! अब घटोत्कच सम्भ्रमरहित हो सूत पुत्र कर्ण से बोला- 'सारथि के बेटे! खड़ा रह। अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायेगा? आज मैं समरागंण में तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूँगा'। क्रोध से लाल आँखें किये वह क्रूर पराक्रमी राक्षस उपर्युक्त बात कहकर आकाश में उछला और बड़े जोर से अट्टहासकरने लगा फिर जैसे सिंह गजराज पर चोट करता है, उसी प्रकार वह कर्ण पर आघात करनेलगा। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ कर्ण पररथ के धुरे के समान मोटे-मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। अपने ऊपर प्राप्तहुई उस बाणवर्षा को कर्ण ने दूर से ही काट गिराया। भरतश्रेष्ठ! कर्ण के द्वारा अपनी माया को नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षावलियों द्वरा हरे-भरे शिखरों से सुशोभित एक अत्यन्त ऊँचा महान् पर्वत बन गया और उससे पानी के झरने की भाँति शूल, प्रास, खडग और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों का स्रोत बहने लगा। घटोत्कच को अञ्जनराशि के समान काला पर्वत बनकर अपने झरनों द्वारा भयंकर अस्त्र-शस्त्रों को प्रवाहित करते देशकर भी कर्ण के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उसने मुसकराते हुए से अपना दिव्यास्त्र प्रकट किया। उस दिव्यास्त्र द्वारा दूर फेंका गया वह पर्वतराज क्षणभर में अदृश्य हो गया और पुनः आकाश में इन्द्रधनुषसहित काला मेघ बनकर वह अत्यन्त भयंकर राक्षस सूत पुत्र कर्ण पर पत्थरों की वर्षा करने लगा।  


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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 35-54|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 76-99}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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०५:०६, ३ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 55-75 का हिन्दी अनुवाद

समरागंण में बाणों के समूह से घिरे हुए घटोत्कच को, उसके घो़डो़ को, रथ को तथा ध्वज को भी कोई नहीं देख पाते थे। वह मायावी राक्षस कर्ण के दिव्यास्त्र को अपने अस्त्र द्वारा काटते हुए वहाँ सूत पुत्र के साथ मायामय युद्ध करने लगा। उस समय माया तथा शीघ्रकारिता के द्वारा वह कर्ण को लड़ा रहा था। आकाश से कर्ण पर अलक्षित बाणसमूहों की वर्षा हो रही थी। कुरुश्रेष्ठ! भरतनन्दन! वह विशालकाय महामायावी भीमसेनकुमार घटोत्कच माया से सबको मोहित करता हुआ सा सब ओर विचरने लगा। उसने माया द्वारा बहुत से विकराल एवं अमंगलसूचक मुख बनाकर सूत पुत्र के दिव्यास्त्रों को अपना ग्रास बना लिया। फिर वह महाकाय राक्षस धैर्यहीन एवं उत्साहशून्य सा होकर रणभूमि में आकाश से सैकड़ों टुकट़ों में कटकर गिरा हुआ दिखायी दिया। उस समय उसे मरा हुआ मानकर कौरव दल के प्रमुख वीर जोर-जोर से जर्जना करने लगे। इतने ही में वह दूसरे बहुत से नये-नये शरीर धारण करके सम्पूर्ण दिशाओं में दिखायी देने लगा। फिर वह बड़ी-बड़ी बाहों वाला एक ही विशालकाय रूप धारण करके मैनाक पर्वत के समान दृष्टिगोचर हुआ। उस समय उसके सौ मस्तक तथा सौ पेट हो गये थे। तत्पश्चात् वह राक्षस अँगूठे के बराबर होकर उछलती हुई समुद्र की लहर के समान कभी ऊपर और कभी इधर-उधर होने लगा। फिर पृथ्वी को फाड़कर वह पानी में डूब गया और दूसरी जगह पुनः जल से ऊपर आकर दिखायी देने लगा। इसके बाद आकाश से उतरकर वह पुनः अपने सुवर्ण मण्डित रथ पर स्थित हो गया और या से ही पृथ्वी, आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता हुआ कवच से सुसज्चित हो कर्ण के रथ के समीप जाकर विचरने लगा। उस समय उसका मुख कुण्डलों से सुशोभित हो रहा था। प्रजानाथ! अब घटोत्कच सम्भ्रमरहित हो सूत पुत्र कर्ण से बोला- 'सारथि के बेटे! खड़ा रह। अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायेगा? आज मैं समरागंण में तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूँगा'। क्रोध से लाल आँखें किये वह क्रूर पराक्रमी राक्षस उपर्युक्त बात कहकर आकाश में उछला और बड़े जोर से अट्टहासकरने लगा फिर जैसे सिंह गजराज पर चोट करता है, उसी प्रकार वह कर्ण पर आघात करनेलगा। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ कर्ण पररथ के धुरे के समान मोटे-मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। अपने ऊपर प्राप्तहुई उस बाणवर्षा को कर्ण ने दूर से ही काट गिराया। भरतश्रेष्ठ! कर्ण के द्वारा अपनी माया को नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षावलियों द्वरा हरे-भरे शिखरों से सुशोभित एक अत्यन्त ऊँचा महान् पर्वत बन गया और उससे पानी के झरने की भाँति शूल, प्रास, खडग और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों का स्रोत बहने लगा। घटोत्कच को अञ्जनराशि के समान काला पर्वत बनकर अपने झरनों द्वारा भयंकर अस्त्र-शस्त्रों को प्रवाहित करते देशकर भी कर्ण के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उसने मुसकराते हुए से अपना दिव्यास्त्र प्रकट किया। उस दिव्यास्त्र द्वारा दूर फेंका गया वह पर्वतराज क्षणभर में अदृश्य हो गया और पुनः आकाश में इन्द्रधनुषसहित काला मेघ बनकर वह अत्यन्त भयंकर राक्षस सूत पुत्र कर्ण पर पत्थरों की वर्षा करने लगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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