महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 76-99
पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
तब अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ वैकर्तन दानी कर्ण ने वायव्यास्त्र का संधान करके उस काले मेघ को नष्ट कर दिया। महाराज! कर्ण ने अपने बाणसमूहों द्वारा सारी दिशाओं को आच्छादित करके घटोत्कच द्वारा चलाये गये अस्त्रों को काट डाला। तब महाबली भीमसेन कुमार ने जोर-जोर से हँसकर समरभूमि में महारथी कर्ण के प्रति अपनी महामाया प्रकट की। उस समय कर्ण ने रथियों में श्रेष्ठ घटोत्कच को पुनः रथ पर बैठकर आते देखा। उसके मन में तनिक भी घबराहट नहीं थी। सिंह, शार्दूल और मतवाले गजराज के समान पराक्रमी बहुत से राक्षस उसे घेरे हुए थे। उन राक्षसों मेंसे कुछ हाथियों पर, कुछ रथों पर और कुछ घोड़ों की पीठों पर सवार थे। वे भयंकर निशाचर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, कवच और आभूषण धारण किये हुए थे। देवताओं से घिरे हुए इन्द्र के समान क्रूर राक्षसों से आवृत्त घटोत्कच को सामने देखकर महाधनुर्धर कर्ण ने उस निशाचर के साथ युद्ध आरम्भ किया। तदनन्तर घटोत्कच ने कर्ण को पाँच बाणों से घायल करके समस्त राजाओँ को भयभीत करते हुए वहाँ भयानक गर्जना की। तत्पश्चात् अञ्जलिक नामक बाण मारकर घटोत्कच ने कर्ण के हाथ में स्थित हुए विशाल धनुष को बाणसमूहों सहित शीघ्र काट डाला। तब कर्ण ने भार सहन करने में समर्थ दूसरा विशाल, सुदृढ़ एवं इन्द्रधनुष के समान ऊँचा धनुष हाथ में लेकर उसे बलपूर्वक खींचा। महाराज! तदनन्तर कर्ण ने उस आकाशचारा राक्षसों को लक्ष्य करके सोने के पंखवाले बहुत से शत्रुनाशक बाण चलाये। उन बाणों से पीड़ित हुआ चौड़ी छाती वाले राक्षसों का वह समूह सिंह के सताये हुए जंगली हाथियों के झुंड की भाँति व्याकुल हो उठा। जैसे प्रलयकाल में भगवान् अग्निदेव सम्पूर्ण भूतों को भस्म कर डालते हैं, उसी प्रकार शक्तिशाली कर्ण ने अपने बाणों द्वारा घोड़े, सारथि और हाथियों सहित उन राक्षसों को संतप्त करके जला डाला। जैसे पूर्वकाल में भगवान् महेश्वर आकाश में त्रिपुरासुर का दाह करके सुशोभित हुए थे, उसी प्रकार उस राक्षस सेना का संहार करके सूतनन्दन कर्ण बड़ी शोभा पाने लगा। माननीय नरेश ! पाण्डवपक्ष के सहस्त्रों राजाओं में से कोई भी भूपाल उस समय कर्ण की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था। राजन्! क्रोध में भरे हुए यमराज के समानभयंकर बल पराक्रम से सम्पन्न महाबली राक्षसराज घटोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई कर्ण का सामना न कर सका। नरेश्वर! जैसे मशालों से जलती हुई तेल की बूँदें गिरती हैं, उसीप्रकार क्रुद्ध हुए घटोत्कच के दोनों नेत्रों से आग की चिनगारियाँ छूटने लगीं। उसने उस समय हाथ से हाथ मलकर, दाँतों से ओठ चबाकर, पुनः हाथी जैसे बलवान् एवं पिशाचों के से मुखवाले प्रखर गधों से जुते हुए मायानिर्मित रथ पर बैठकर अपने सारथि से कहा- 'तुम मुझे सूत्रपुत्र कर्ण के पास ले चलो'। प्रजानाथ! ऐसा कहकर रथियों में श्रेष्ठ घटोत्कच पुनः उस भयंकर रथ के द्वारा सूतपुत्र कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध करने के लिये गया। उस राक्षस ने कुपित होकर पुनः सूतपुत्र कर्ण पर आठ चक्रों से युक्त एक अत्यन्त भयंकर रुद्रनिर्मित अशनि चलायी, जिसकी ऊँचाई दो योजन और लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन की थी। लोहे की बनी हुई उस शक्ति में शूल चुने गये थे। इससे वह केसरों से युक्त कदम्ब-पुष्प के समान जान पड़ती थी। कर्ण ने अपना विशाल धनुष नीचे रख दिया और उछलकर उस अशनि को हाथ से पकड़ लिया, फिर उसे ठकोत्कच पर ही चला दिया। घटोत्कच शीघ्र ही उस रथ से कूद पड़ा। वह अतिशय प्रभापूर्ण अशनि घोड़े, सारथि और ध्वजसहित घटोत्कच के रथ को भस्म करके धरती फाड़कर समा गयी। यह देख वहाँ खड़े हुए सब देवता आश्चर्यचकित हो उठे।
« पीछे | आगे » |