"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 168 श्लोक 38-52" के अवतरणों में अंतर

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अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम (168) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम अध्याय: श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्‍तर एक दिन कोई दूसरा ब्राह्मण उस गांव में आया जो जटा, वल्‍कल और मृगचर्म धारण किये हुए था। वह स्‍वाध्‍यायपरायण, पवित्र, विनयी, नियम के अनुकूल भेाजन करने वाला, ब्राह्मणभक्‍त तथा वेदों का पारङग्‍त विद्वान् था। वह ब्राह्मचारी ब्राह्मण गौतम के ही गांव का निवासी तथा उसका परमप्रिय मित्र था और घूमता हुआ डाकुओं के उसी गांव में जा पहुंचा था, जहां गौतम निवास करता था। वह शूद्र का अन्‍न नहीं खाता था; इसलिये दस्‍युओं से भरे हुए उस गांव में ब्राह्मण के घर की तलाश करता हुआ सब ओर घूमने लगा। घूमता–घामता वह श्रेष्‍ठ ब्राह्मण गौतम के घर पर गया, इतने ही में गौतम भी शिकार से लौटकर वहां आ पहुंचा। उन दोनों की एक–दूसरें से भेट हुई। ब्राह्मण ने देखा, गौतम के कंधे पर मारे गये हंस की लाश है, हाथ में धनुष और बाण है, सारा शरीर रक्‍त सींच उठा है, घर के दरवाजे पर आया हुआ गौतम नरभक्षी राक्षस के समान जान पड़ता है; और ब्राह्मणत्‍व से भ्रष्‍ट हो चुका है। उसे इस अवस्‍था में घर पर आया देख ब्राह्मण ने पहचान लिया। पहचानकर वे बडे़ लज्जित हुए और उससे इस प्रकार बोले- ‘अरे! तू मोहवश यह क्‍या कर रहा है? तू तो मध्‍यदेश का विख्‍यात एवं कुलीन ब्राह्मण था। यहां डाकू कैसे बन गया ? ‘ब्राह्मन! अपने पूर्वजों को तो याद कर। उनकी कितनी ख्‍याति थी। वह कैसे वेदों के पारड़ग्‍त विद्वान् थे ओर तू उन्‍हीं के वंश में पैदा होकर ऐसा कुलकलंक निकला। ‘अब भी तो अपने-आपको पहचान! तु द्विज है; अत: द्विजोचित सत्‍व, शील, शास्‍त्रज्ञान, संयम और दयाभाव को याद करके अपने इस निवास स्‍थान को त्‍याग दे’। राजन्! अपने उस हितैषी सुहृद के इस प्रकार कहने पर गौतम मन–ही–मन कुछ निश्‍चय करके आर्त–सा होकर बोला- ‘द्विजश्रेष्‍ठ! मैं निर्धन हूं और वेद को भी नहीं जानता; अत: द्विजप्रवर! मुझे धन कमाने के लिये इधर आया हुआ समझें। ‘विपेंद्र! आज आपके दर्शन से में कृतार्थ हो गया। ब्रह्मन! अब रात भर यहीं रहिये, कल सबेरे हम दोनों साथ ही चलेंगे। वह ब्राह्मण दयालु था। गौतम के अनुरोध से उसके यहां ठहर गया, किंतु वहां की किसी भी वस्‍तु को हा‍थ से छुआ भी नहीं। यद्यपि वह भूखा था और भोजन करने के लिये गौतम द्वारा उससे बड़ी अनुनय-विनय की गई तो भी किसी तरह वहां का अन्‍न ग्रहण करना उसने स्‍वीकार नहीं किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कृतघ्‍न का उपाख्‍यानविषयक एक सौ अड़सठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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