"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 243 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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==त्रिचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
   
 
   

०८:११, ८ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

त्रिचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्माणों के उपलक्षण से गार्हस्‍थ्‍य धर्म का वर्णन

व्‍यासजी कहते हैं– बेटा ! गृहस्‍थ पुरूष अपनी आयु के दूसरे भाग तक गृहस्‍थधर्म का पालन करते हुए घर पर ही रहे । धर्मानुसार स्‍त्री से विवाह करके उसके साथ अग्नि स्‍थापना करने के पश्‍चात् नित्‍य अग्निहोत्र आदि करे और उत्‍तम व्रत का पालन करता रहे। गृहस्‍थ ब्राह्माण के लिये विद्वानों ने चार प्रकार की आजीविका बतायी हैं– कोठेभर अनाज का संग्रह करके रखना, यह पहली जीविकावृत्ति है । कुंडेभर अन्‍न का संग्रह करना, यह दूसरी वृत्ति है तथा उतने ही अन्‍न का संग्रह करना जो दूसरे दिने के लिये शेष न रहे, यह तीसरी वृत्ति है । अथवा ‘कापोतीवृत्त’ (उछवृत्ति)का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करे,यह चौथी वृत्ति है। इन चारों में पहली की अपेक्षा दूसरी-दूसरी वृत्ति श्रेष्‍ठ है । अन्तिम वृत्ति का आश्रय लेने वाला धर्म की दृष्टि से सर्वश्रेष्‍ठ हैं और वही सबसे बढ़कर धर्मविजयी है। पहली श्रेणी के अनुसार जीविका चलाने वाले ब्राह्माण को यजन-याजन, अध्‍ययन-अध्‍यापन तथा दान और प्रतिग्रह– ये छ: कर्म करने चाहिये। दूसरी श्रेणी वाले को अध्‍ययन, यजन और दान– इन तीन कर्मों में ही प्रवृत्‍त होना चाहिये। तीसरी श्रेणीवाले को अध्‍ययन और दान ये दो ही कर्म करने चाहिये तथा चौथी श्रेणी वाले को केवल ब्रह्मायज्ञ (वेदाध्‍ययन) करना उचित है। गृहस्‍थों के लिये शास्‍त्रों में बहुत से श्रेष्‍ठ नियम बताये गये है । वह केवल अपने ही भोजन के लिये रसोई न बनावे (अपितु देवता, पितर और अतिथियों के उददेश्‍य से ही बनावे) और पशु हिंसा न करे,क्‍योंकि यह अनर्थमूलक है। यज्ञ में यजमान एवं हविष्‍य आदि सबका यजुर्वेद के मन्‍त्र से संस्‍कार होना चाहिये । गृहस्‍थ पुरूष दिन में कभी न सोये ।रात के पहले और पिछले भाग में भी नींद न ले। सबेरे और शाम दो ही समय भोजन करे, बीच में न खाय । ऋतुकाल के सिवा अन्‍य समय में स्‍त्री को अपनी शैय्‍या पर न बुलावे । उसके घर पर आया हुआ कोई ब्राह्माण अतिथि आदर सत्‍कार और भोजन पाये बिना न रह जाय। यदि द्वार पर अतिथि के रूप में वेद के पारंगत विद्वान, स्‍नातक, श्रोत्रिय, हव्‍य (यज्ञान्‍न) और कव्‍य (श्राद्धान्‍न) भोजन करने वाले, जितेन्द्रिय, क्रियानिष्‍ठ, स्‍वधर्म से ही जीवन निर्वाह करने वाले और तपस्‍वी ब्राह्माण आ जाये तो सदा उसकी विधिवत पूजा करके उन्‍हें हव्‍य और कव्‍य समर्पित करने चाहिये । उनके सत्‍कार के लिये यह सब करने का विधान है। जो धार्मिकता का ढोंग दिखाने के लिये अपने नख और बाल बढ़ाकर आया हो, अपने ही मुख से अपने किये हुए धर्म का विज्ञापन करता हो, अकारण अग्निहोत्र का त्‍याग कर चुका हो अथवा गुरू के साथ कपट करने वाला हो, ऐसा मनुष्‍य भी गृहस्‍थ के घर में अन्‍न पाने का अधिकारी है । वहां सभी प्राणियों के लिये अन्‍न वितरण की विधि है । जो अपने हाथ से भोजन नहीं बनाते, ऐसे लोगों (ब्रह्माचारियों और सन्‍यासियों) के लिये गृहस्‍थ पुरूष को सदा ही अन्‍न देना चाहिये। गृहस्‍थ को सदा विघस और अमृत अन्‍न का भोजन करना चाहिये । यज्ञ से बचा हुआ भोजन हविष्‍य के समान और अमृत माना गया है। कुटुम्‍ब में भरण पोषण के योग्‍य जितने लोग हैं, उनको भोजन कराने के बाद बचे हुए अन्‍न को जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (विघस अन्‍न भोजन करने वाला ) बताया गया है । पोष्‍यवर्ग से बचे हुए अन्‍न को विघस तथा पंचमहायज्ञ एवं बलिवैश्‍वदेव से बचे हुए अन्‍न को अमृत कहते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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