"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 259 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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==एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम (259) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
==एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम (259) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टपञ्चादधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
 
 
धर्माधर्म के स्‍वरूप का निर्णय
 
धर्माधर्म के स्‍वरूप का निर्णय

०६:१०, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम (259) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

धर्माधर्म के स्‍वरूप का निर्णय

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! ये सभी मनुष्‍य प्राय: धर्म के विषय में संशयशील हैं; अत: मैं जानना चाहता हॅू कि धर्म क्‍या है ? और उसकी उत्‍पत्ति कहॉ से हुई है ? यह मुझे बताइये। पितामह ! इस लोक में सुख पाने के लिये जो कर्म किया जाता है, वही धर्म है या परलोक में कल्‍याण के लिये जो कुछ किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं ? अथवा लोक-परलोक दोनों के सुधार के लिये कुछ किया जानेवाला कर्म ही धर्म कहलाता है ? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर ! वेद, स्‍मृति और सदाचार- येतीन धर्म के स्‍वरूप को लक्षित करानेवाले हैं । कुछ विद्वान् अर्थ को भी धर्म का चौथा लक्षण बतातेहै। शास्‍त्रोंमे जो धर्मानुकूल कार्य बताये गये हैं, उन्‍हें ही प्रधान एवं अनुप्रधान सभी लोग निश्चित रूप से धर्म मानते हैं । लोकयात्रा निर्वाह करनेके लिये ही महर्षियों ने यहॉ धर्म की मर्यादा स्‍थापित की हैं। धर्म का पालन करने से आगे चलकर इस लोक और परलोक में भी सुख मिलता है । पापी मनुष्‍य विचारपूर्वक धर्म का आश्रय न लेने से पाप में प्रवृत्त हो उसके दु:खरूप फल का भागी होता है। पापाचारी मनुष्‍य आपत्तिकाल में कष्‍ट भोगकर भी उस पाप से मुक्‍त नहीं होते और धर्म का आचरण करनेवाले लोग आपत्तिकाल में भी पाप का समर्थन नहीं करते हैं । आचार (शौचाचार-सदाचार) ही धर्म का आधार है; अत: युधिष्ठिर ! तुम उस आचार का आश्रय लेकर ही धर्म के यथार्थ स्‍वरूप को जान सकोगे। जैसे चोर धर्मकार्य में प्रवृत्त होकर भी दूसरों के धन का अपहरण कर ही लेता है और अराजक-अवस्‍था में पराये धन का अपहरण करनेवाला लुटेरा सुख का अनुभव करता है। परंतु जब दूसरे लोग उस चोर का भी धन हर लेते है, तब वह चोर भी प्रजा की रक्षा करने और चोरों को दण्‍ड देनेवाले राजा को चाहता हैं-उसकी आवश्‍यकता का अनुभव करता है । उस अवस्‍था में वह उन पुरूषों के समान बनने की इच्‍छा करता है, जो अपने ही धन से संतुष्‍ट रहते हैं- दूसरों के धनपर हाथ लगाना पाप समझते हैं। जो पवित्र है- जिसमें चोरी आदि के दोष नहीं हैं, वह मनुष्‍य निर्भय और नि:शंक होकर राजा के द्वारपर चला जाता है; क्‍योंकि वह अपनी अन्‍तरात्‍मा में कोई दुराचार नहीं देखता है। सत्‍य बोलना शुभ कर्म है । सत्‍य से बढ़कर दूसरा कोई कार्य नहीं है । सत्‍य ने ही सबको धारण कर रखा है और सत्‍यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। क्रूर स्‍वभाववाले पापी भी पृथक्-पृथक् सत्‍य की शपथ खाकर ही आपस में द्रोह या विवाद से बचे रहते हैं । इतना ही नहीं, वे सत्‍य का आश्रय लेकरसत्‍य की ही दुहाई देकर अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त होते हैं । वे यदि आपस की शपथ को भंग कर दें तो निस्‍संदेह परस्‍पर लड़-भिड़कर नष्‍ट हो जायॅ । दूसरों के धनका अपहरण नहींकरना चाहिये-यही सनातन धर्महै। कुछ बलवान् लोग (बल के घमंड में नास्तिक भाव का आश्रय लेकर) धर्म को दुर्बलों का चलाया हुआ मानते हैं; किंतु जब भाग्‍यवश वे भी दुर्बल हो जाते हैं, तब अपनी रक्षा के लिये उन्‍हें भी धर्म का ही सहारा लेना अच्‍छा जान पड़ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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