"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 236 श्लोक 36-41" के अवतरणों में अंतर

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==षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
==षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 36-41 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 36-41 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
  
 
जो किसी वस्‍तु की न तो इच्‍छा करता है, न अनिच्‍छा ही करता है, जीवन निर्वाहमात्र के लिये जो कुछ मिल जाता है, उसीपर संतोष करता है, जो निर्लोभ, व्‍यथारहित और जितेन्द्रिय है, जिसको न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न कुछ न करने से ही, जिसकी इन्द्रियॉ और मन कभी चंचल नहीं होते, जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है, जो समस्‍त प्राणियों पर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है, मिटटी के ढेले, पत्‍थर और स्‍वर्ण को एक सा समझता है, जिसकी दृष्टि में प्रिय और अप्रिय का भेंद नहीं है, जो धीर है और अपनी निन्‍दा तथा स्‍तुति में सम रहता है, जो सम्‍पूर्ण भोगों में स्‍पृहारहित है, जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्राचर्य-व्रत में स्थित है तथा जो सब प्राणियों में हिंसाभाव से रहित है, ऐसा सांख्‍ययोगी (ज्ञानी) संसार –बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है । योगी जिस प्रकार और जिन कारणों से योग के फल-स्‍वरूप मोक्ष लाभ करते हैं, अब उन्‍हें बताता हॅू, सूनो । जो परवैराग्‍य के बल से योगजनित ऐश्‍वर्य को लॉघकर उसकी सीमा से बाहर निकल जाता है, वही मुक्‍त हो जाता है । बेटा ! यह तुम्‍हारे निकट मैंने भावशुद्धि से प्राप्‍त होनेवाली बुद्धि का वर्णन किया है । जो उपर्युक्‍तरूपसे साधना करके द्वन्‍द्वों से रहित हो जाता है, वही ब्रह्राभाव को प्राप्‍त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।
 
जो किसी वस्‍तु की न तो इच्‍छा करता है, न अनिच्‍छा ही करता है, जीवन निर्वाहमात्र के लिये जो कुछ मिल जाता है, उसीपर संतोष करता है, जो निर्लोभ, व्‍यथारहित और जितेन्द्रिय है, जिसको न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न कुछ न करने से ही, जिसकी इन्द्रियॉ और मन कभी चंचल नहीं होते, जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है, जो समस्‍त प्राणियों पर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है, मिटटी के ढेले, पत्‍थर और स्‍वर्ण को एक सा समझता है, जिसकी दृष्टि में प्रिय और अप्रिय का भेंद नहीं है, जो धीर है और अपनी निन्‍दा तथा स्‍तुति में सम रहता है, जो सम्‍पूर्ण भोगों में स्‍पृहारहित है, जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्राचर्य-व्रत में स्थित है तथा जो सब प्राणियों में हिंसाभाव से रहित है, ऐसा सांख्‍ययोगी (ज्ञानी) संसार –बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है । योगी जिस प्रकार और जिन कारणों से योग के फल-स्‍वरूप मोक्ष लाभ करते हैं, अब उन्‍हें बताता हॅू, सूनो । जो परवैराग्‍य के बल से योगजनित ऐश्‍वर्य को लॉघकर उसकी सीमा से बाहर निकल जाता है, वही मुक्‍त हो जाता है । बेटा ! यह तुम्‍हारे निकट मैंने भावशुद्धि से प्राप्‍त होनेवाली बुद्धि का वर्णन किया है । जो उपर्युक्‍तरूपसे साधना करके द्वन्‍द्वों से रहित हो जाता है, वही ब्रह्राभाव को प्राप्‍त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।
  
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक देव का अनुप्रश्‍नविषयक दो सौ छत्तीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।
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०७:४२, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 36-41 का हिन्दी अनुवाद

जो किसी वस्‍तु की न तो इच्‍छा करता है, न अनिच्‍छा ही करता है, जीवन निर्वाहमात्र के लिये जो कुछ मिल जाता है, उसीपर संतोष करता है, जो निर्लोभ, व्‍यथारहित और जितेन्द्रिय है, जिसको न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न कुछ न करने से ही, जिसकी इन्द्रियॉ और मन कभी चंचल नहीं होते, जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है, जो समस्‍त प्राणियों पर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है, मिटटी के ढेले, पत्‍थर और स्‍वर्ण को एक सा समझता है, जिसकी दृष्टि में प्रिय और अप्रिय का भेंद नहीं है, जो धीर है और अपनी निन्‍दा तथा स्‍तुति में सम रहता है, जो सम्‍पूर्ण भोगों में स्‍पृहारहित है, जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्राचर्य-व्रत में स्थित है तथा जो सब प्राणियों में हिंसाभाव से रहित है, ऐसा सांख्‍ययोगी (ज्ञानी) संसार –बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है । योगी जिस प्रकार और जिन कारणों से योग के फल-स्‍वरूप मोक्ष लाभ करते हैं, अब उन्‍हें बताता हॅू, सूनो । जो परवैराग्‍य के बल से योगजनित ऐश्‍वर्य को लॉघकर उसकी सीमा से बाहर निकल जाता है, वही मुक्‍त हो जाता है । बेटा ! यह तुम्‍हारे निकट मैंने भावशुद्धि से प्राप्‍त होनेवाली बुद्धि का वर्णन किया है । जो उपर्युक्‍तरूपसे साधना करके द्वन्‍द्वों से रहित हो जाता है, वही ब्रह्राभाव को प्राप्‍त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक देव का अनुप्रश्‍नविषयक दो सौ छत्तीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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