"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-15": अवतरणों में अंतर
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==एकोशीतितम (81) अध्याय: | ==एकोशीतितम (81) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोशीतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद </div> | |||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | |||
;उलूपी अर्जुन के पूछने पर अपने आगमन का कारण एवं अर्जुन की पराजयका रहस्य बताना, पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पार्थ का पुन अश्व के पीछे जाना | ;उलूपी अर्जुन के पूछने पर अपने आगमन का कारण एवं अर्जुन की पराजयका रहस्य बताना, पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पार्थ का पुन अश्व के पीछे जाना | ||
अर्जन बोले – कौरव्य नाम के कुल को आनन्दित करने वाली उलूपी ! इस रणभूमि में तुम्हारे और मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा के | अर्जन बोले – कौरव्य नाम के कुल को आनन्दित करने वाली उलूपी ! इस रणभूमि में तुम्हारे और मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा के आने का क्या कारण है ? नागकुमारी ! तुम इस राजा बभ्रुवाहन का कुशल– मंगल तो चाहती हो न ? चंचल कटाक्षवाली सुन्दरी ! तुम मेरे कल्याण की भी इच्छा रखती हो न ? स्थूल नितम्बवाली प्रियदर्शने ! मैंने या इस बभ्रुवाहन ने अनजान मं तुम्हारा कोई अप्रिय तो नहीं किया है ? तुम्हारी सौत चित्रवाहनकुमारी वरारोहा राजपुत्री चित्रांगदा ने तो तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है ? अर्जुन का यह प्रश्न सुनकर नागराजकन्या उलूपी हंसती हुई–सी बोली– प्राणवल्लभ ! आपने या बभ्रुवाहन ने मेरा कोई आपराध नहीं किया है । बभ्रुवाहन की माता ने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है । यह तो सदा दासी की भांति मेरी आज्ञा के अधीन रहती है । यहां आकर मैंने जो–जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूं ; सुनिये। प्रभो ! कुरुनन्दन ! पहले तो मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपको प्रसन्न करना चाहती हूं । यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें; क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्नता के लिये ही किया है। महाबाहु धनंजय ! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्यान देकर सुनिये । पार्थ ! महाभारत – युद्ध में आपने जो शान्तकुमार महाराज को भीष्म को अधर्म पर्वक मारा है, उस पाप का यह प्रायश्चित कर दिया गया। वीर ! आपे अपने साथ जूझते हुए भीष्मजी को नहीं मारा है, वे शिखण्डी की आड़ लेकर आपे उनका वध किया था। उसकी शान्ति किये बिना ही यदि आप प्राणों का परित्याग करते तो उस पापकर्म के प्रभाव से निश्चय ही नरक में पड़ते। महामते ! पृथ्वीपाल ! पूर्वकाल में वसुओं तथा गंगाजी ने इसी रूप में उस पाप की शान्ति निश्चित की थी ; जिसे आप अपने पुत्र से पराजय के रू में प्राप्त किया है। पहले की बात है, एक दिन मैं गंगाजी के तट पर गयी थी । नरेश्वर ! वहां शान्तनु नन्दन भीष्मजी के मारे जाने के बाद वसुओं ने गंगा तट पर आकर आपके सम्बन्ध में जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था। वसु नामक देवता महानदी गंगा के तट पर एकत्र हो स्नान करके भागीरथी की सम्मति से यह भयानक वचन बोले-भाविनी ! ये शान्तनु नन्दन भीष्म संग्राम में दूसरे के साथ उलझे हुए थे । अर्जुन के साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्यवाची अर्जुन ने इनका वध किया है । इस अपराध के कारण हमलोग आज अर्जुन को शाप देना चाहते हैं । यह सुनकर गंगाजी ने कहा – हां ऐसा ही होना चाहिये। अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहन को छाती से लगा रहे है उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्द्रियां व्यथित हो उठीं और पाताल में प्रवेश करके मैंने अपने पिता से यह समाचार कह सुनाया । यह सुनकर पिताजी को भी बड़ा खेद हुआ। | ||
आने का क्या कारण है ? नागकुमारी ! तुम इस राजा बभ्रुवाहन का कुशल– मंगल तो चाहती हो न ? चंचल कटाक्षवाली सुन्दरी ! तुम मेरे कल्याण की भी इच्छा रखती हो न ? स्थूल नितम्बवाली प्रियदर्शने ! मैंने या इस बभ्रुवाहन ने अनजान मं तुम्हारा कोई अप्रिय तो नहीं किया है ? तुम्हारी सौत चित्रवाहनकुमारी वरारोहा राजपुत्री चित्रांगदा ने तो तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है ? अर्जुन का यह प्रश्न सुनकर नागराजकन्या उलूपी हंसती हुई–सी बोली– प्राणवल्लभ ! आपने या बभ्रुवाहन ने मेरा कोई आपराध नहीं किया है । बभ्रुवाहन की माता ने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है । यह तो सदा दासी की भांति मेरी आज्ञा के अधीन रहती है । यहां आकर मैंने जो–जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूं ; सुनिये। प्रभो ! कुरुनन्दन ! पहले तो मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपको प्रसन्न करना चाहती हूं । यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें; क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्नता के लिये ही किया है। महाबाहु धनंजय ! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्यान देकर सुनिये । पार्थ ! महाभारत – युद्ध में आपने जो शान्तकुमार महाराज को भीष्म को अधर्म पर्वक मारा है, उस पाप का यह प्रायश्चित कर दिया गया। वीर ! आपे अपने साथ जूझते हुए भीष्मजी को नहीं मारा है, वे शिखण्डी की आड़ लेकर आपे उनका वध किया था। उसकी शान्ति किये बिना ही यदि आप प्राणों का परित्याग करते तो उस पापकर्म के प्रभाव से निश्चय ही नरक में पड़ते। महामते ! पृथ्वीपाल ! पूर्वकाल में वसुओं तथा गंगाजी ने इसी रूप में उस पाप की शान्ति निश्चित की थी ; जिसे आप अपने पुत्र से पराजय के रू में प्राप्त किया है। पहले की बात है, एक दिन मैं गंगाजी के तट पर गयी थी । नरेश्वर ! वहां शान्तनु नन्दन भीष्मजी के मारे जाने के बाद वसुओं ने गंगा तट पर आकर आपके सम्बन्ध में जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था। वसु नामक देवता महानदी गंगा के तट पर एकत्र हो स्नान करके भागीरथी की सम्मति से यह भयानक वचन बोले-भाविनी ! ये शान्तनु नन्दन भीष्म संग्राम में दूसरे के साथ उलझे हुए थे । अर्जुन के साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्यवाची अर्जुन ने इनका वध किया है । इस अपराध के कारण हमलोग आज अर्जुन को शाप देना चाहते हैं । यह सुनकर गंगाजी ने कहा – हां ऐसा ही होना चाहिये। अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहन को छाती से लगा रहे है उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्द्रियां व्यथित हो उठीं और पाताल में प्रवेश करके मैंने अपने पिता से यह समाचार कह सुनाया । यह सुनकर पिताजी को भी बड़ा खेद हुआ। | |||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 80 श्लोक 55-61|अगला=महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 81 श्लोक 16-32}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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०६:४८, ११ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
एकोशीतितम (81) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
- उलूपी अर्जुन के पूछने पर अपने आगमन का कारण एवं अर्जुन की पराजयका रहस्य बताना, पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पार्थ का पुन अश्व के पीछे जाना
अर्जन बोले – कौरव्य नाम के कुल को आनन्दित करने वाली उलूपी ! इस रणभूमि में तुम्हारे और मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा के आने का क्या कारण है ? नागकुमारी ! तुम इस राजा बभ्रुवाहन का कुशल– मंगल तो चाहती हो न ? चंचल कटाक्षवाली सुन्दरी ! तुम मेरे कल्याण की भी इच्छा रखती हो न ? स्थूल नितम्बवाली प्रियदर्शने ! मैंने या इस बभ्रुवाहन ने अनजान मं तुम्हारा कोई अप्रिय तो नहीं किया है ? तुम्हारी सौत चित्रवाहनकुमारी वरारोहा राजपुत्री चित्रांगदा ने तो तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है ? अर्जुन का यह प्रश्न सुनकर नागराजकन्या उलूपी हंसती हुई–सी बोली– प्राणवल्लभ ! आपने या बभ्रुवाहन ने मेरा कोई आपराध नहीं किया है । बभ्रुवाहन की माता ने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है । यह तो सदा दासी की भांति मेरी आज्ञा के अधीन रहती है । यहां आकर मैंने जो–जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूं ; सुनिये। प्रभो ! कुरुनन्दन ! पहले तो मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपको प्रसन्न करना चाहती हूं । यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें; क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्नता के लिये ही किया है। महाबाहु धनंजय ! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्यान देकर सुनिये । पार्थ ! महाभारत – युद्ध में आपने जो शान्तकुमार महाराज को भीष्म को अधर्म पर्वक मारा है, उस पाप का यह प्रायश्चित कर दिया गया। वीर ! आपे अपने साथ जूझते हुए भीष्मजी को नहीं मारा है, वे शिखण्डी की आड़ लेकर आपे उनका वध किया था। उसकी शान्ति किये बिना ही यदि आप प्राणों का परित्याग करते तो उस पापकर्म के प्रभाव से निश्चय ही नरक में पड़ते। महामते ! पृथ्वीपाल ! पूर्वकाल में वसुओं तथा गंगाजी ने इसी रूप में उस पाप की शान्ति निश्चित की थी ; जिसे आप अपने पुत्र से पराजय के रू में प्राप्त किया है। पहले की बात है, एक दिन मैं गंगाजी के तट पर गयी थी । नरेश्वर ! वहां शान्तनु नन्दन भीष्मजी के मारे जाने के बाद वसुओं ने गंगा तट पर आकर आपके सम्बन्ध में जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था। वसु नामक देवता महानदी गंगा के तट पर एकत्र हो स्नान करके भागीरथी की सम्मति से यह भयानक वचन बोले-भाविनी ! ये शान्तनु नन्दन भीष्म संग्राम में दूसरे के साथ उलझे हुए थे । अर्जुन के साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्यवाची अर्जुन ने इनका वध किया है । इस अपराध के कारण हमलोग आज अर्जुन को शाप देना चाहते हैं । यह सुनकर गंगाजी ने कहा – हां ऐसा ही होना चाहिये। अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहन को छाती से लगा रहे है उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्द्रियां व्यथित हो उठीं और पाताल में प्रवेश करके मैंने अपने पिता से यह समाचार कह सुनाया । यह सुनकर पिताजी को भी बड़ा खेद हुआ।
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