"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 111": अवतरणों में अंतर

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यह सच है कि कर्म और यज्ञ परम श्रेय के साधक हैं, परंतु कर्म तीन प्रकार के होते हैं; एक वह जो यज्ञ के बिना वैयक्त्कि सुख -भोग के लिये किया जाता है , ऐसा कर्म सर्वथा स्वार्थ और अहंकार से भरा होता है और जीवन के वास्तविक धर्म, ध्येय और उपयोग से वंचित रहता है, वह कर्म जो होता तो है कामना से ही पर यज्ञ के साथ ,और इसका भोग केवल यज्ञ के फल -स्परूस्प ही होता है , इसलिये उस हदतक यह कर्म निर्मल और पवित्र है; तीसरा वह कर्म जिसमें कोई कामना या आसक्त् नहीं होती । इसी अतिंम कर्म से जीव परम को प्राप्त होता है, यज्ञ , कर्म और ब्रह्म, इन शब्दों से जो अर्थ हम ग्रहण करें, उसी पर इस दिशा का सम्पूर्ण अर्थ और अभिप्राय निर्भर है। यदि यज्ञ का अर्थ केवल वैदिक यज्ञ ही हो , यदि जिस कर्म से इसका जन्म होता है वह वैदिक कर्म विधि ही हो और यदि वह ब्रह्म जिससे समस्त कर्मो का उद्भव होता है वह वेदों की शब्दराशि रूप शब्दब्रह्म ही जो तो वेदवादियों के सिद्धांत की सब बातें स्वीकार हो जाती हैं और कुछ बाकी नहीं रहता ।  
यह सच है कि कर्म और यज्ञ परम श्रेय के साधक हैं, परंतु कर्म तीन प्रकार के होते हैं; एक वह जो यज्ञ के बिना वैयक्त्कि सुख -भोग के लिये किया जाता है , ऐसा कर्म सर्वथा स्वार्थ और अहंकार से भरा होता है और जीवन के वास्तविक धर्म, ध्येय और उपयोग से वंचित रहता है, वह कर्म जो होता तो है कामना से ही पर यज्ञ के साथ ,और इसका भोग केवल यज्ञ के फल -स्परूस्प ही होता है , इसलिये उस हदतक यह कर्म निर्मल और पवित्र है; तीसरा वह कर्म जिसमें कोई कामना या आसक्त् नहीं होती । इसी अतिंम कर्म से जीव परम को प्राप्त होता है, यज्ञ , कर्म और ब्रह्म, इन शब्दों से जो अर्थ हम ग्रहण करें, उसी पर इस दिशा का सम्पूर्ण अर्थ और अभिप्राय निर्भर है। यदि यज्ञ का अर्थ केवल वैदिक यज्ञ ही हो , यदि जिस कर्म से इसका जन्म होता है वह वैदिक कर्म विधि ही हो और यदि वह ब्रह्म जिससे समस्त कर्मो का उद्भव होता है वह वेदों की शब्दराशि रूप शब्दब्रह्म ही जो तो वेदवादियों के सिद्धांत की सब बातें स्वीकार हो जाती हैं और कुछ बाकी नहीं रहता ।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१०, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
12.यज्ञ-रहस्य

एक है वैदिक आदर्श और दूसरा है वैदांतिक आदर्श; एक है यज्ञ के द्वारा मनुष्यों तथा देवताओं के परस्पर - अवलंबन के द्वारा इहलोक में ऐहिक भोग और परलोक में परम श्रेय की प्राप्ति का सक्रिय आदर्श , और उसी के सामने दूसरा है उस मुक्त पुरूष का कठोरतर आदर्श जो आत्मा के स्वातंत्रय में स्थित है और इसलिये जिसे भोग से या कर्म से अथवा मानव - जगत् से या दिव्य जगत् से कुछ भी मतलब नहीं, जो परम आत्मा की शांति में निवास करता और ब्रह्म के प्रशांत आनंद में रमण करता है। इसके आगे के श्लोक इन दो चरम पंथों के बीच समन्वय साधन करने के लिये जमीन तैयार करते हैं; इस समन्वय का रहस्य यह है कि उच्चतर सत्य की ओर झुकने के साथ ही जिस वृत्ति का ग्रहण इष्ट है वह अकर्म नहीं, बल्कि निष्काम कर्म है जो उस सत्य की उपलब्धि के पहले पीछे भी वांछनीय है। मुक्त पुरूष को कर्म से कुछ लेना नहीं है, पर अकर्म से भी उसे कोई लाभ नहीं उठाना है; उसे कर्म और अकर्म में से किसी एक को अपने ही लाभ या हानि की दृष्टि से पसंद नहीं करना है। “इसलिये अनासक्त् होकर सतत कर्तव्य कर्म करो (संसार के लिये , लोक - संग्रह के लिये , जैसा कि आगे उसी सिलसिले में स्पष्ट किया गया है); क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से पुरूष परम को प्राप्त होता है। कर्म के द्वारा ही जनक आदि ने सिद्धि लाभ की।“
यह सच है कि कर्म और यज्ञ परम श्रेय के साधक हैं, परंतु कर्म तीन प्रकार के होते हैं; एक वह जो यज्ञ के बिना वैयक्त्कि सुख -भोग के लिये किया जाता है , ऐसा कर्म सर्वथा स्वार्थ और अहंकार से भरा होता है और जीवन के वास्तविक धर्म, ध्येय और उपयोग से वंचित रहता है, वह कर्म जो होता तो है कामना से ही पर यज्ञ के साथ ,और इसका भोग केवल यज्ञ के फल -स्परूस्प ही होता है , इसलिये उस हदतक यह कर्म निर्मल और पवित्र है; तीसरा वह कर्म जिसमें कोई कामना या आसक्त् नहीं होती । इसी अतिंम कर्म से जीव परम को प्राप्त होता है, यज्ञ , कर्म और ब्रह्म, इन शब्दों से जो अर्थ हम ग्रहण करें, उसी पर इस दिशा का सम्पूर्ण अर्थ और अभिप्राय निर्भर है। यदि यज्ञ का अर्थ केवल वैदिक यज्ञ ही हो , यदि जिस कर्म से इसका जन्म होता है वह वैदिक कर्म विधि ही हो और यदि वह ब्रह्म जिससे समस्त कर्मो का उद्भव होता है वह वेदों की शब्दराशि रूप शब्दब्रह्म ही जो तो वेदवादियों के सिद्धांत की सब बातें स्वीकार हो जाती हैं और कुछ बाकी नहीं रहता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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