"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 189": अवतरणों में अंतर

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‘‘विषयेद्रिय - संयोग से उत्पन्न होने वाले ये भोग ही दुःख के कारण हैं, इनका आदि है, अंत है; इसलिये ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरूष (बुध) इसमें रमण नहीं अपने ही अंदर पाता है।”<ref>15.22</ref><ref>25.21</ref> वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिये वह सदा सावधान रहता है और अपने - आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता बल्कि अपनी अंतःशक्ति का प्रयोग कर अपने - आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है, क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है। वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जता है , सात्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है - क्योंकि समत्व ही तो योग है, उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी - गरमी में, सुख - दुःख में, मान - अपमान में वह एक - सा शांत और सम रहता है। शत्रु , मित्र , तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं, और जीवन की सदा बदलने वाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। विद्या , शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जाने वाले श्रेष्ठ - कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते । वह साधु - असाधु , सदाचारपूत, विद्वान, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये , सम, आत्मभावयुत होता है। गीता में सात्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है।तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है? वह भेद यह है कि दार्शननिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान।
‘‘विषयेद्रिय - संयोग से उत्पन्न होने वाले ये भोग ही दुःख के कारण हैं, इनका आदि है, अंत है; इसलिये ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरूष (बुध) इसमें रमण नहीं अपने ही अंदर पाता है।”<ref>15.22</ref><ref>25.21</ref> वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिये वह सदा सावधान रहता है और अपने - आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता बल्कि अपनी अंतःशक्ति का प्रयोग कर अपने - आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है, क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है। वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जता है , सात्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है - क्योंकि समत्व ही तो योग है, उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी - गरमी में, सुख - दुःख में, मान - अपमान में वह एक - सा शांत और सम रहता है। शत्रु , मित्र , तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं, और जीवन की सदा बदलने वाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। विद्या , शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जाने वाले श्रेष्ठ - कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते । वह साधु - असाधु , सदाचारपूत, विद्वान, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये , सम, आत्मभावयुत होता है। गीता में सात्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है।तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है? वह भेद यह है कि दार्शननिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
19.समत्व

‘‘बुद्धि के भी परे जो परमात्मा हैं उनको बुद्धि के द्वारा जानकर आत्मा को आत्म - शक्ति से स्थिर और निश्चल करो और लाभ करने वाली राजसिक प्रवृत्ति दोनों ही अच्छी हो सकती हैं यदि उनका लक्ष्य सत्वगुण के द्वारा आत्म - ज्ञान को प्राप्त करना हो, क्योंकि निवृत्ति और संघर्षात्मक प्रवृत्ति दोनों की सार्थकता उसीमें है।गीता का कथन है,[१] अर्थात् धीर बद्धिमान् पुरूष उनसे घबराता नहीं। परंतु फिर भी इन्हें जो स्वीकार करता है वह इन्हें जीतने के लिये ही करता है ।विशुद्ध दार्शनिक , मनीषी , जन्म - ज्ञानी पुरूष अपने आचारविचार के लिये सत्वगुण को केवल अपना परम औचितय नहीं मानता बल्कि आत्म - वशित्व के साधन में आरंभ से उसीसे काम लेता । वह आरंभ ही सात्विक समता से करता है। वह भी जड़- प्राकृतिक और बाह्म जगत् की क्षणभंगुरता को देखता - समझता है और यह जानता है कि यह जगत् हमारी कामनाओं को पूरा नहीं कर सकता , न यह हमें सच्चा सुख ही दे सकता है; परंतु इससे उसमें शोक , भय या नैराश्य नहीं उत्पन्न होता। वह स्थिर शांत बुद्धि से सब कुछ देख लेता और बिना किसी द्वेष या घबराहट के अपना मार्ग निश्चित कर लेता है।
‘‘विषयेद्रिय - संयोग से उत्पन्न होने वाले ये भोग ही दुःख के कारण हैं, इनका आदि है, अंत है; इसलिये ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरूष (बुध) इसमें रमण नहीं अपने ही अंदर पाता है।”[२][३] वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिये वह सदा सावधान रहता है और अपने - आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता बल्कि अपनी अंतःशक्ति का प्रयोग कर अपने - आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है, क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है। वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जता है , सात्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है - क्योंकि समत्व ही तो योग है, उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी - गरमी में, सुख - दुःख में, मान - अपमान में वह एक - सा शांत और सम रहता है। शत्रु , मित्र , तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं, और जीवन की सदा बदलने वाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। विद्या , शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जाने वाले श्रेष्ठ - कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते । वह साधु - असाधु , सदाचारपूत, विद्वान, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये , सम, आत्मभावयुत होता है। गीता में सात्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है।तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है? वह भेद यह है कि दार्शननिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 13.43
  2. 15.22
  3. 25.21

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