"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 81": अवतरणों में अंतर

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सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है , वह यही है । इन दो परस्पर - विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसी से यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे। गुरू कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं । भगवान् कहते हैं ,निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है, बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, मनुष्य जब रहित ब्राह्मी - स्थति की पवित्रता और समता को प्राप्त हेाता है तभी वह दान कर्मो को कर सकता है, जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं फिर भी कर्म मुक्ति के साधन है, किंतु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों । अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरू ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय ,मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण , अपने निम्न व्यक्तित्व का निव्र्यक्तितत्व में लय - योग के मुख्य विचार अभीतक गौण और अप्रकट हैं - इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी । उसने पूछा कि, “ यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं ? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते है; निश्रित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर संकू।“  
सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है , वह यही है । इन दो परस्पर - विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसी से यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे। गुरू कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं । भगवान् कहते हैं ,निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है, बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, मनुष्य जब रहित ब्राह्मी - स्थति की पवित्रता और समता को प्राप्त हेाता है तभी वह दान कर्मो को कर सकता है, जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं फिर भी कर्म मुक्ति के साधन है, किंतु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों । अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरू ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय ,मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण , अपने निम्न व्यक्तित्व का निव्र्यक्तितत्व में लय - योग के मुख्य विचार अभीतक गौण और अप्रकट हैं - इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी । उसने पूछा कि, “ यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं ? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते है; निश्रित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर संकू।“  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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१०:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

गीता के प्रथम छः अध्यायों का संपूर्ण लक्ष्य सांख्य और योग ,इन दो मार्गों को ,जिन्हे सामान्यतः एक दूसरे से भिन्न और विरोधी समझा जाता है, वेदांतिक सत्य के विशाल आयतन में समन्वित करना है । सांख्य से ही आरंभ किया गया है सांख्य को ही आधार बनाकर; पर आरंभ से ही उसमें, उत्तरोत्तर अधिक दृढता से योग की भावनाएं और पद्धतियां भरी गयी हैं और सांख्य को योग के ही भाव में एक नये रूप में ढाला गया है। सांख्य और योग में जो प्रकृत भेद उस समय की धर्म - बुद्धि में प्रतीत होता था वह प्रथमः यह था कि सांख्य का साधन ज्ञान तथा बुद्धि योग द्वारा और योग का साधन कर्म तथा सक्रिय चेतना के रूपांतर के द्वारा हेता है। दूसरा भेद - जो प्रथम भेद से आप ही निष्पन्न होता है - यह था कि , सांख्य पूर्ण निष्क्रियता और संन्यास की और ले जानेवाला माना जाता था जब कि योग में कामना का आंतरिक त्याग , आंतरिक तत्वों का पवित्रिकरण - जो कर्म की और और कर्मो को भगत् - निमित्त कर देव - जीवन और मुक्ति की ओर ले जाता है - पर्याप्त माना जाता था। फिर भी दोनों का उद्देश्य एक ही था, अर्थात जन्म और इस पार्थिव जीवन के परे जाना और मानव- आत्मा का परमात्मा के साथ एक हो जाना ।
सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है , वह यही है । इन दो परस्पर - विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसी से यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे। गुरू कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं । भगवान् कहते हैं ,निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है, बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, मनुष्य जब रहित ब्राह्मी - स्थति की पवित्रता और समता को प्राप्त हेाता है तभी वह दान कर्मो को कर सकता है, जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं फिर भी कर्म मुक्ति के साधन है, किंतु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों । अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरू ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय ,मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण , अपने निम्न व्यक्तित्व का निव्र्यक्तितत्व में लय - योग के मुख्य विचार अभीतक गौण और अप्रकट हैं - इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी । उसने पूछा कि, “ यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं ? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते है; निश्रित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर संकू।“


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