"महाभारत वन पर्व अध्याय 10 श्लोक 20-39": अवतरणों में अंतर
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== दशम अध्याय: | == दशम (10) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वनपर्व: दशम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद</div> | |||
राजन ! तुम पाण्डवों से द्रोह न करो। नरश्रेष्ठ ! अपना, पाण्डवों का, कुरुकुल का तथा सम्पूर्ण जगत का प्रिय साधन हो। मनुष्यों में श्रेष्ठ सब पाण्डव शूरवीर, पराक्रमी और युद्ध-कुशल हैं। उन सब में दस हजार हाथियों का बल है। उनका शरीर वज्र के समान दृढ़ है। वे सब-के-सब सत्यव्रतधारी और अपने पौरुष पर अभिमान रखने वाले हैं। इच्छानुसार रूप धारण करने वाले देवद्रोही [[हिडिम्ब]] आदि राक्षसों का राक्षस जातीय किर्मीर का वध भी उन्होंने ही किया है। | |||
यहाँ से रात में जब वे महात्मा पाण्डव चले जा रहे थे, उस समय उनका मार्ग रोककर भयंकर पर्वत के समान विशालकाय किर्मीर उनके सामने खड़ा हो गया। युद्ध की क्षमता रखने वाले बलवानों में श्रेष्ठ [[भीम|भीमसेन]] ने उस राक्षस को बलपूर्वक पकड़कर पशु की तरह वैसे ही मार डाला, जैसे व्याघ्र छोटे मृग को मार डालता है। राजन ! देखो, दिग्विजय के समय भीमसेन ने उस महान धर्नुधर राजा जरासंध को भी युद्ध में मार गिराया, जिसमें दस हजार हाथियों का बल था। (यह भी स्मरण रखना चाहिये कि [[वसुदेव|वसुदेवनन्दन]] भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] उनके सम्बन्धी हैं तथा द्रुपद के सभी पुत्र उनके साले हैं। जरा और मृत्यु के वश में रहने वाला कौन मनुष्य युद्ध में उन पाण्डवों का सामना कर सकता है। भरतकुलभूषण ! ऐसे महापराक्रमी पाण्डवों के साथ तुम्हें शान्तिपूर्वक मिलकर ही रहना चाहिये। राजन ! तुम मेरी बात मानो; क्रोध के वश में न रहो। | |||
'''मैत्रेयजी ने कहा''' - | '''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-राजन ! [[मैत्रेय|मैत्रेयजी]] जब आप इस प्रकार कह रहे थे,उस समय [[दुर्योधन]] ने मुस्कुराकर हाथी के सूँड के समान अपनी जाँघ को हाथ से ठोंका और पैर से पृथ्वी को कुरेदने लगा। उस दुर्बुद्धि ने मैत्रेयजी को कुछ भी उत्तर न दिया। वह अपने मुँह को कुछ नीचा किये चुपचाप खड़ रहा। राजन ! मैत्रेयजी ने देखा, दुर्योधन सुनना नहीं चाहता, वह पैरों से धरती कुरेद रहा है। यह देख उनके मन में क्रोध जाग उठा। फिर तो वे मुनि श्रेष्ठ मैत्रेय कोप के वशीभूत हो गये। विधाता से प्रेरित होकर उन्होंने दुर्योधन को शाप देने का विचार किया।। तदनन्तर मैत्रेय ने क्रोध से लाल आँखें करके जल का आचमन किया और उस दुष्ट चित्त वाले धृतराष्ट्रपुत्र को इस प्रकार शाप दिया- दुर्योधन ! तू मेरा अनादर करके मेरी बात मानना नहीं चाहता; अतः तू इस अभिमान का तुरंत फल पा ले। ‘तेरे द्रोह के कारण बड़ा भारी युद्ध छिड़ेगा, उसमें बलवान भीमसेन अपनी गदा की चोट से तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे। उनके ऐसा कहने पर महाराज धृतराष्ट्र ने मुनि को प्रसन्न किया और कहा-‘भगवन ! ऐसा न हो।' | ||
'''मैत्रेयजी ने कहा''' - राजन ! जब तुम्हारा पुत्र शान्ति धारण करेगा (पाण्डवों से वैर-विरोध न करके मेल-मिलाप कर लेगा), तब यह शाप इस पर लागू न होगा। तात ! यदि इसने विपरीत बर्ताव किया, तो यह शाप इसे अवश्य भोगना पड़ेगा। | |||
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - जनमेजय ! तब दुर्योधन के पिता महाराज [[धृतराष्ट्र]] ने भीमसेन के बल का विशेष परिचय पाने के लिये मैत्रेयजी से पूछा-‘मुने ! [[भीम]] ने किर्मीर को कैसे मारा? | '''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - जनमेजय ! तब दुर्योधन के पिता महाराज [[धृतराष्ट्र]] ने भीमसेन के बल का विशेष परिचय पाने के लिये मैत्रेयजी से पूछा-‘मुने ! [[भीम]] ने किर्मीर को कैसे मारा? | ||
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'''मैत्रेयजी ने कहा'''- राजन्- तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये [[विदुर|विदुरजी]] मेरे चले जाने पर वह सारा प्रसंग तुम्हें बतायेंगे । | '''मैत्रेयजी ने कहा'''- राजन्- तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये [[विदुर|विदुरजी]] मेरे चले जाने पर वह सारा प्रसंग तुम्हें बतायेंगे । | ||
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - | '''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - राजन ! ऐसा कहकर मैत्रेयजी जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। किर्मीर वध का समाचार सुनकर उद्विग्न हो दुर्योधन भी बाहर निकल गया। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में मैत्रेयशापविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में मैत्रेयशापविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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१३:२०, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
दशम (10) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
राजन ! तुम पाण्डवों से द्रोह न करो। नरश्रेष्ठ ! अपना, पाण्डवों का, कुरुकुल का तथा सम्पूर्ण जगत का प्रिय साधन हो। मनुष्यों में श्रेष्ठ सब पाण्डव शूरवीर, पराक्रमी और युद्ध-कुशल हैं। उन सब में दस हजार हाथियों का बल है। उनका शरीर वज्र के समान दृढ़ है। वे सब-के-सब सत्यव्रतधारी और अपने पौरुष पर अभिमान रखने वाले हैं। इच्छानुसार रूप धारण करने वाले देवद्रोही हिडिम्ब आदि राक्षसों का राक्षस जातीय किर्मीर का वध भी उन्होंने ही किया है। यहाँ से रात में जब वे महात्मा पाण्डव चले जा रहे थे, उस समय उनका मार्ग रोककर भयंकर पर्वत के समान विशालकाय किर्मीर उनके सामने खड़ा हो गया। युद्ध की क्षमता रखने वाले बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन ने उस राक्षस को बलपूर्वक पकड़कर पशु की तरह वैसे ही मार डाला, जैसे व्याघ्र छोटे मृग को मार डालता है। राजन ! देखो, दिग्विजय के समय भीमसेन ने उस महान धर्नुधर राजा जरासंध को भी युद्ध में मार गिराया, जिसमें दस हजार हाथियों का बल था। (यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण उनके सम्बन्धी हैं तथा द्रुपद के सभी पुत्र उनके साले हैं। जरा और मृत्यु के वश में रहने वाला कौन मनुष्य युद्ध में उन पाण्डवों का सामना कर सकता है। भरतकुलभूषण ! ऐसे महापराक्रमी पाण्डवों के साथ तुम्हें शान्तिपूर्वक मिलकर ही रहना चाहिये। राजन ! तुम मेरी बात मानो; क्रोध के वश में न रहो।
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन ! मैत्रेयजी जब आप इस प्रकार कह रहे थे,उस समय दुर्योधन ने मुस्कुराकर हाथी के सूँड के समान अपनी जाँघ को हाथ से ठोंका और पैर से पृथ्वी को कुरेदने लगा। उस दुर्बुद्धि ने मैत्रेयजी को कुछ भी उत्तर न दिया। वह अपने मुँह को कुछ नीचा किये चुपचाप खड़ रहा। राजन ! मैत्रेयजी ने देखा, दुर्योधन सुनना नहीं चाहता, वह पैरों से धरती कुरेद रहा है। यह देख उनके मन में क्रोध जाग उठा। फिर तो वे मुनि श्रेष्ठ मैत्रेय कोप के वशीभूत हो गये। विधाता से प्रेरित होकर उन्होंने दुर्योधन को शाप देने का विचार किया।। तदनन्तर मैत्रेय ने क्रोध से लाल आँखें करके जल का आचमन किया और उस दुष्ट चित्त वाले धृतराष्ट्रपुत्र को इस प्रकार शाप दिया- दुर्योधन ! तू मेरा अनादर करके मेरी बात मानना नहीं चाहता; अतः तू इस अभिमान का तुरंत फल पा ले। ‘तेरे द्रोह के कारण बड़ा भारी युद्ध छिड़ेगा, उसमें बलवान भीमसेन अपनी गदा की चोट से तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे। उनके ऐसा कहने पर महाराज धृतराष्ट्र ने मुनि को प्रसन्न किया और कहा-‘भगवन ! ऐसा न हो।'
मैत्रेयजी ने कहा - राजन ! जब तुम्हारा पुत्र शान्ति धारण करेगा (पाण्डवों से वैर-विरोध न करके मेल-मिलाप कर लेगा), तब यह शाप इस पर लागू न होगा। तात ! यदि इसने विपरीत बर्ताव किया, तो यह शाप इसे अवश्य भोगना पड़ेगा।
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तब दुर्योधन के पिता महाराज धृतराष्ट्र ने भीमसेन के बल का विशेष परिचय पाने के लिये मैत्रेयजी से पूछा-‘मुने ! भीम ने किर्मीर को कैसे मारा?
मैत्रेयजी ने कहा- राजन्- तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये विदुरजी मेरे चले जाने पर वह सारा प्रसंग तुम्हें बतायेंगे ।
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन ! ऐसा कहकर मैत्रेयजी जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। किर्मीर वध का समाचार सुनकर उद्विग्न हो दुर्योधन भी बाहर निकल गया।
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