"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 18-33": अवतरणों में अंतर
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१२:४४, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
मैं संग्राम के धर्मों को जानता हूं और सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत हूं। मैं किसी प्रकार अधर्म नहीं कर सकता; यह जानते हुए भी तुम मेरे विषय में मोहित हो रहे हो। क्षत्रिय लोग अपने-अपने भाई, पिता, पुत्र, सम्बन्धी, बन्धु बान्धवों, समान अवस्था वाले साथी और मित्रों से घिरकर शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं। वे सब लोग उस प्रधान योद्धा के बाहुबल के आश्रित होते हैं। सात्यकि मेरा शिष्य और सुखप्रद सम्बन्धी है। वह मेरे ही लिये अपने दुस्त्यज प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध कर रहा है। राजन ! रणदुर्मद सात्यकि युद्धस्थल में मेरी दाहिनी भुजा के समान है। उसे तुम्हारे द्वारा कष्ट पाते देख मैं कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता था। मैंने देखा है तुम उसे घसीट रहे थे और वह शत्रु के अधीन होकर निश्चेष्ट हो गया था। राजन ! रणभूमि में गये हुए वीर के लिये केवल अपनी ही रक्षा करना उचित नहीं है। नरेश्वर ! जो जिसके कार्यों में संलग्न होता है, वह अवश्य ही उसके द्वारा रक्षणीय हुआ करता है। इसी प्रकार उन सुरक्षित होने वाले सुहृदों का भी कर्तव्य है कि वे महासमर में अपने राजा की रक्षा करें। यदि मैं इस महायुद्ध में सात्यकि को अपने सामने मरते देखता तो उसके वियोग से मुझे अनर्थकारी पाप लगता। इसीलिये मैंने उसकी रक्षा की है। अतः तुम मुझ पर क्यों क्रोध करते हो ? राजन ! आप जो यह कहकर मेरी निन्दा कर रहे हैं कि ‘अर्जुन ! मैं दूसरे के साथ युद्ध में लगा हुआ था, उस दशा में तुमने मेरे साथ छल किया’ आपकी इस बात से मेरी बुद्धि में भ्रम पैदा हो गया है। तुम स्वयं कवच हिलाते हुए रथ पर चढ़े थे, धनुष की प्रत्यन्चा खींचते थे और अपने बहुसंख्यक शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदलों से भरे हुए सिंहनाद की भैरव गर्जना से व्याप्त गम्भीर सैन्य समुद्र में जहां अपने और शत्रु पक्ष के एकत्र हुए लोगों का परस्पर युद्ध चल रहा था, तुम्हारी सात्यकि के साथ मुठभेड़ हुई थी। ऐसे तुमुल युद्ध में किसी भी एक योद्धा का एक ही योद्धा के साथ संग्राम कैसे माना जा सकता है ? सात्यकि बहुत से योद्धाओं के साथ युद्ध करके कितने ही महारथियों को पराजित करने के बाद थक गया था। उसके घोड़े भी परिश्रम से चूर-चूर हो रहे थे और वह अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित हो खिन्नचित्त हो गया था। ऐसी अवस्था में महारथी सात्यकि को युद्ध में जीतकर तुम यह समझने लगे कि मैं सात्यकि से बड़ा वीर हूं और वह मेरे पराक्रम से वश में आ गया है। इसीलिये तुम युद्धस्थल में तलवार से उसका सिर काट लेना चाहते थे। सात्यकि को वैसे संकट में देखकर मेरे पक्ष का कौन वीर सहन करेगा ? तुम अपनी ही निन्दा करो, जो कि अपनी भी रक्षा तक नहीं कर सकते। वीरवर ! फिर जो तुम्हारे आश्रय में होगा, उसकी रक्षा कैसे कर सकोगे ?
संजय कहते हैं-राजन ! अर्जुन के ऐसा कहने पर यूप के चिन्ह से युक्त ध्वजावाले महायशस्वी महाबाहु भूरिश्रवा सात्यकि को छोड़कर रणभूमि में आमरण अनशन का नियम लेकर बैठ गये।
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