महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 34-46

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त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 34-46 का हिन्दी अनुवाद

पवित्र लक्षणों वाले भूरिश्रवा ने बायें हाथ से बाण बिछाकर बह्मलोक में जाने की इच्छा से प्राणायाम के द्वारा प्राणों को प्राणों में ही होम दिया। वे नेत्रों को सूर्य में और प्रसन्न मन को जल में समाहित करके महोपनिषत्प्रतिपादित परब्रह्म का चिन्तन करते हुए योगयुक्त मुनि हो गये। तदनन्तर सारी कौरव सेना के लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की निन्दा तथा नरश्रेष्ठ भूरिश्रवा की प्रशंसा करने लगे। उनके द्वारा निन्दित होने पर भी श्रीकृष्ण और अर्जुन ने कोई अप्रिय बात नहीं कही तथा प्रशंसित होने पर भी यूपकेतु भूरिश्रवा ने हर्ष नहीं प्रकट किया। राजन ! आपके पुत्र जब भूरिश्रवाकी ही भांति निन्दा की बातें कहने लगे, तब अर्जुन उनके तथा भूरिश्रवा के उस कथन को मन ही मन सहन न कर सके। भरतनन्दन ! पाण्डुपुत्र अर्जुन के मन में तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। उन्होंने मानो पुरानी बातें याद दिलाते हुए, कौरवों पर आक्षेप करते हुए से कहा-। सब राजा मेरे इस महान व्रत को जानते ही हैं कि जो कोई मेरा आत्मीयजन मेरे बाणों की पहुंच के भीतर होगा, वह किसी शत्रु के द्वारा मारा नहीं जा सकता। यूपध्वज भूरिश्रवाजी ! इस बात पर ध्यान देकर आपको मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये। धर्म के स्वरूप को जाने बिना दूसरे किसी की निन्दा करनी उचित नहीं है। आप तलवार हाथ में लेकर रणभूमि में वृष्णिवीर सात्यकि का वध करना चाहते थे। उस दशा में मैंने जो आपकी बांह काट डाली है, वह आश्रित रक्षारूप धर्म निन्दित नहीं है। तात ! बालक अभिमन्यु शस्त्र, कवच और रथ से हीन हो चुका था, उस दशा में जो उसका वध किया गया, उसकी कौन धार्मिक पुरुष प्रशंसा कर सकता है। ‘जो शास्त्रीय मर्यादा में स्थित नहीं रहता, उस नीच दुर्योधन की सहायता करने वाले सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा का जो इस प्रकार वध हुआ है, वह ठीक ही है।। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि मुझे प्राण संकट उपस्थित होने पर आत्मीयजनों की रक्षा करनी चाहिये; विशेषतः उन वीरों की जो मेरी आंखो के सामने मारे जा रहे हों। ‘कुरुवंशी महामना भूरिश्रवा ने सात्यकि को अपने वश में कर लिया था। इसी से अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये मैंने यह कार्य किया है’ । संजय कहते हैं-राजन ! फिर बहुत सी भिन्न-भिन्न बातें सोचकर अर्जुन दया से द्रवित और शोक से पीड़ितहो उठे तथा कुरुवंशी भूरिश्रवा से इस प्रकार बोले। अर्जुन ने कहा-उस क्षत्रिय-धर्म को धिक्कार है, जहां दूसरों को शरण देने वाले आप-जैसे शरणागतवत्सल नरेश ऐसी अवस्था को जा पहुंचे हैं। यदि पहले से प्रतिज्ञा न की गयी होती तो संसार में मेरे-जैसा कौन श्रेष्ठ पुरुष आप-जैसे गुरुजन पर आज ऐसा प्रहार कर सकता था ? कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर भूरिश्रवा ने अपने मस्तक से भूमि का स्पर्श किया। बायें हाथ से अपना दाहिना हाथ उठा कर अर्जुन के पास फेंक दिया। महाराज ! पार्थ की उपर्युक्त बात सुनकर यूप चिन्हित ध्वजा वाले महातेजस्वी भूरिश्रवा नीचे मुंह किये मौन रह गये। उस समय अर्जुन ने कहा-शल के बड़े भाई भूरिश्रवाजी ! मेरा जो प्रेम धर्मराज युधिष्ठिर, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन, नकुल और सहदेव में है, वही आपमें भी है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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