"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 101-122": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति २: पंक्ति २:
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 101-122 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 101-122 का हिन्दी अनुवाद</div>


वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित होकर इन्द्रके वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकार का भार सहन करने में समर्थ और महान था। उसकी गन्ध और मालाओं द्वारा सदा पूजा की जाती थीं। कुरूनन्दन महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्रास्त्र से संयोजित करके श्रीग ही गाण्डीव धनुष पर रखा। नरेश्रवर ! जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियों में महान कोलाहल होने लगा। उस समय वहां भगवान् श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे- धनंजय ! तुम दुरात्मा सिंधुराज का मस्तक शीघ्र काट लो। क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचल पर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथ-वध के विषय में तुम मेरी यह बात ध्यान से सुन लो। सिंधुराज के पिता वृद्धक्षत्र इस जगत में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकाल के पश्‍चात इस सिंधुराज जयद्रथ को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया। इसके जन्मकाल में मेघ के समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्‍य आकाशवाणी ने शत्रुसूदन जयद्रथ के विषय में राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-। शक्तिशाली नरेन्द्र ! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्रुणों के द्वारा वशों के अनुरूप होगा।। इस जगत के क्षत्रियों में यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समयमें संग्रामभूमि में युद्ध करते समय कोई क्षत्रिय शिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खडा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा।। यह सुनकर शत्रुओंका दमन करने वाले सिंधुराज वृद्धक्षत्र देरतक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेह से प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयों से इस प्रकार बोले-। संग्राम में युद्ध तत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्र के मस्तक को जो पृथ्वी पर गिरा देगा, उसके सिर के भी सैकडों टूकडे़ हो जायेगें, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर समय आने पर वृद्धक्षत्र ने जयद्रथ को राज्य-सिंहासन पर स्‍थापित कर दिया और स्वंय वन में जाकर वे उग्र तपस्या में संलग्न हो गये। कपिध्वज अर्जुन ! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं। अतः शत्रुसूदन ! तु अदभूत कर्म करने वाले किसी भयंकर दिव्यास्त्र के द्वारा इस महासमर में सिंधुराज जयद्रथ का कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। भारत ! तुम भीमसेन के छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)। यदि तुम इसके मस्तक को पृथ्वी पर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो जायेंगे। इसमें संशय नहीं है। कुरूश्रेष्ठ ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्या में संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्र का आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बात का पता न चले। इन्द्रकुमार ! सम्पूर्ण त्रिलोकी में कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो अथवा जिसे तुम कर न सको। श्रीकृष्ण यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिये धनुष पर रखे हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारों को सहने में समर्थ था और जिसकी प्रतिःदेन चन्दन और पुष्पमाला द्वारा पूजा की जाती थी। गाण्डीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा;।
वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित होकर इन्द्रके वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकार का भार सहन करने में समर्थ और महान था। उसकी गन्ध और मालाओं द्वारा सदा पूजा की जाती थीं। कुरूनन्दन महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्रास्त्र से संयोजित करके श्रीग ही गाण्डीव धनुष पर रखा। नरेश्रवर ! जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियों में महान कोलाहल होने लगा। उस समय वहां भगवान  श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे- धनंजय ! तुम दुरात्मा सिंधुराज का मस्तक शीघ्र काट लो। क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचल पर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथ-वध के विषय में तुम मेरी यह बात ध्यान से सुन लो। सिंधुराज के पिता वृद्धक्षत्र इस जगत में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकाल के पश्‍चात इस सिंधुराज जयद्रथ को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया। इसके जन्मकाल में मेघ के समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्‍य आकाशवाणी ने शत्रुसूदन जयद्रथ के विषय में राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-। शक्तिशाली नरेन्द्र ! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्रुणों के द्वारा वशों के अनुरूप होगा।। इस जगत के क्षत्रियों में यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समयमें संग्रामभूमि में युद्ध करते समय कोई क्षत्रिय शिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खडा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा।। यह सुनकर शत्रुओंका दमन करने वाले सिंधुराज वृद्धक्षत्र देरतक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेह से प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयों से इस प्रकार बोले-। संग्राम में युद्ध तत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्र के मस्तक को जो पृथ्वी पर गिरा देगा, उसके सिर के भी सैकडों टूकडे़ हो जायेगें, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर समय आने पर वृद्धक्षत्र ने जयद्रथ को राज्य-सिंहासन पर स्‍थापित कर दिया और स्वंय वन में जाकर वे उग्र तपस्या में संलग्न हो गये। कपिध्वज अर्जुन ! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं। अतः शत्रुसूदन ! तु अदभूत कर्म करने वाले किसी भयंकर दिव्यास्त्र के द्वारा इस महासमर में सिंधुराज जयद्रथ का कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। भारत ! तुम भीमसेन के छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)। यदि तुम इसके मस्तक को पृथ्वी पर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो जायेंगे। इसमें संशय नहीं है। कुरूश्रेष्ठ ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्या में संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्र का आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बात का पता न चले। इन्द्रकुमार ! सम्पूर्ण त्रिलोकी में कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो अथवा जिसे तुम कर न सको। श्रीकृष्ण यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिये धनुष पर रखे हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारों को सहने में समर्थ था और जिसकी प्रतिःदेन चन्दन और पुष्पमाला द्वारा पूजा की जाती थी। गाण्डीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा;।


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 82-100|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 123-144}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 82-100|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 123-144}}
पंक्ति ९: पंक्ति ९:
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
{{सम्पूर्ण महाभारत}}


[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत द्रोणपर्व]]
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत द्रोणपर्व]]
__INDEX__
__INDEX__

१२:१४, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 101-122 का हिन्दी अनुवाद

वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित होकर इन्द्रके वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकार का भार सहन करने में समर्थ और महान था। उसकी गन्ध और मालाओं द्वारा सदा पूजा की जाती थीं। कुरूनन्दन महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्रास्त्र से संयोजित करके श्रीग ही गाण्डीव धनुष पर रखा। नरेश्रवर ! जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियों में महान कोलाहल होने लगा। उस समय वहां भगवान श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे- धनंजय ! तुम दुरात्मा सिंधुराज का मस्तक शीघ्र काट लो। क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचल पर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथ-वध के विषय में तुम मेरी यह बात ध्यान से सुन लो। सिंधुराज के पिता वृद्धक्षत्र इस जगत में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकाल के पश्‍चात इस सिंधुराज जयद्रथ को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया। इसके जन्मकाल में मेघ के समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्‍य आकाशवाणी ने शत्रुसूदन जयद्रथ के विषय में राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-। शक्तिशाली नरेन्द्र ! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्रुणों के द्वारा वशों के अनुरूप होगा।। इस जगत के क्षत्रियों में यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समयमें संग्रामभूमि में युद्ध करते समय कोई क्षत्रिय शिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खडा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा।। यह सुनकर शत्रुओंका दमन करने वाले सिंधुराज वृद्धक्षत्र देरतक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेह से प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयों से इस प्रकार बोले-। संग्राम में युद्ध तत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्र के मस्तक को जो पृथ्वी पर गिरा देगा, उसके सिर के भी सैकडों टूकडे़ हो जायेगें, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर समय आने पर वृद्धक्षत्र ने जयद्रथ को राज्य-सिंहासन पर स्‍थापित कर दिया और स्वंय वन में जाकर वे उग्र तपस्या में संलग्न हो गये। कपिध्वज अर्जुन ! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं। अतः शत्रुसूदन ! तु अदभूत कर्म करने वाले किसी भयंकर दिव्यास्त्र के द्वारा इस महासमर में सिंधुराज जयद्रथ का कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। भारत ! तुम भीमसेन के छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)। यदि तुम इसके मस्तक को पृथ्वी पर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो जायेंगे। इसमें संशय नहीं है। कुरूश्रेष्ठ ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्या में संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्र का आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बात का पता न चले। इन्द्रकुमार ! सम्पूर्ण त्रिलोकी में कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो अथवा जिसे तुम कर न सको। श्रीकृष्ण यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिये धनुष पर रखे हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारों को सहने में समर्थ था और जिसकी प्रतिःदेन चन्दन और पुष्पमाला द्वारा पूजा की जाती थी। गाण्डीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा;।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।