"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 181 श्लोक 1-20": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: एकाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: एकाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंघ आदि धर्मद्रोहियों के वध करने का कारण बताना | |||
अर्जुन ने पूछा- अनार्दन! आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन-किन उपायों से जरासंघ आदि राजाओं का वध कराया है। | अर्जुन ने पूछा- अनार्दन! आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन-किन उपायों से जरासंघ आदि राजाओं का वध कराया है। | ||
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते। दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही कौरवों का पक्ष लेते। वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़तापूर्वक युद्ध करने वाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे। सूतपुत्र कर्ण, जरासंघ, चेदिराज शिशुपाल और निषाद-नन्दन एकलव्य-ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते। धनंजय! वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें बतलाता हूँ, मुझसे सुनो! बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे। कुन्तीनन्दन! उनमें से अलग-अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समरागंण में अकेला ही युद्ध कर सकता थ। एक समय की बात है, रोहिणीनन्दन बलरामजी ने युद्ध में जरासंघ को पछाड़ दिया था। इससे कुपित होकर जरासंघ ने हम लोगों के वध के लिये अपनी सर्वघातिनी गदा का प्रहार किया। अग्नि के समान प्रज्वलित वह गदा इन्द्र के चलाये हुए वज्र की भाँति आकाश में सीमन्त रेखा सी बनाती हुई वहाँ गिरती दिखायी दी। वहाँ गिरती हुई उस गदा को देखते ही उसके प्रतिघात (निवारण) के लिये रोहिणीनन्दन बलरामजी ने स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र के वेग से प्रतिहत होकर वह गदा पृथ्वी देवी को विदीर्ण करती और पर्वतों को कँपाती हुई सी भूतल पर गिर पड़ी। जिस स्थान पर गदा गिरी, वहाँ उत्तम बल-पराक्रम से सम्पन्न् जरा नामक एक भयंकर राक्षसी रहती थी। उसी ने जन्म के पश्चात् शत्रुदमन जरासंघ के शरीर को जोड़ा था। उसका आधा-आधा शरीर अलग-अलग दो माताओं के पेट से पैदा हुआ था। जराने उसे जोड़ा था, इसीलिये उसका नाम जरासंघ हुआ। पार्थ! भूमि के भीतर रहने वाली वह राक्षसी उस गदा से तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र के आघात से पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित मारी गयी। धनंजय! उस महासमर में जरासंघ बिना गदा के हो गया था, इसीलिये तुम्हारे देखते-देखते भीमसेन ने उसे मार डाला। नरश्रेष्ठ! यदि प्रतापी जरासंघ के हाथ में वह गदा होती तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे युद्ध में मार नहीं सकते थे। तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्यपराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था। सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। कुन्तीकुमार! यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग- ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था ? उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्या का विद्वान् था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था। | |||
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१२:१४, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंघ आदि धर्मद्रोहियों के वध करने का कारण बताना
अर्जुन ने पूछा- अनार्दन! आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन-किन उपायों से जरासंघ आदि राजाओं का वध कराया है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते। दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही कौरवों का पक्ष लेते। वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़तापूर्वक युद्ध करने वाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे। सूतपुत्र कर्ण, जरासंघ, चेदिराज शिशुपाल और निषाद-नन्दन एकलव्य-ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते। धनंजय! वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें बतलाता हूँ, मुझसे सुनो! बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे। कुन्तीनन्दन! उनमें से अलग-अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समरागंण में अकेला ही युद्ध कर सकता थ। एक समय की बात है, रोहिणीनन्दन बलरामजी ने युद्ध में जरासंघ को पछाड़ दिया था। इससे कुपित होकर जरासंघ ने हम लोगों के वध के लिये अपनी सर्वघातिनी गदा का प्रहार किया। अग्नि के समान प्रज्वलित वह गदा इन्द्र के चलाये हुए वज्र की भाँति आकाश में सीमन्त रेखा सी बनाती हुई वहाँ गिरती दिखायी दी। वहाँ गिरती हुई उस गदा को देखते ही उसके प्रतिघात (निवारण) के लिये रोहिणीनन्दन बलरामजी ने स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र के वेग से प्रतिहत होकर वह गदा पृथ्वी देवी को विदीर्ण करती और पर्वतों को कँपाती हुई सी भूतल पर गिर पड़ी। जिस स्थान पर गदा गिरी, वहाँ उत्तम बल-पराक्रम से सम्पन्न् जरा नामक एक भयंकर राक्षसी रहती थी। उसी ने जन्म के पश्चात् शत्रुदमन जरासंघ के शरीर को जोड़ा था। उसका आधा-आधा शरीर अलग-अलग दो माताओं के पेट से पैदा हुआ था। जराने उसे जोड़ा था, इसीलिये उसका नाम जरासंघ हुआ। पार्थ! भूमि के भीतर रहने वाली वह राक्षसी उस गदा से तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र के आघात से पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित मारी गयी। धनंजय! उस महासमर में जरासंघ बिना गदा के हो गया था, इसीलिये तुम्हारे देखते-देखते भीमसेन ने उसे मार डाला। नरश्रेष्ठ! यदि प्रतापी जरासंघ के हाथ में वह गदा होती तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे युद्ध में मार नहीं सकते थे। तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्यपराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था। सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। कुन्तीकुमार! यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग- ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था ? उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्या का विद्वान् था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था।
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