"श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 16-27" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<center>'''महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन'''</center>
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<center>'''महाराज [[परीक्षित]] के द्वारा कलियुग का दमन'''</center>
  
भगवान् के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित् ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान् के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित् के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होंगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण क्या या होगा। उसमें पद-पद पर भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान् के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है ।
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भगवान  के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान  के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होंगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण क्या या होगा। उसमें पद-पद पर भगवान  [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान  के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है ।
सूतजी कहते हैं—अहो! विलोम जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ।
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सूतजी कहते हैं—अहो! विलोम<ref>उच्च वर्ण की माता और निम्न वर्ण के पिता से उत्पन्न संतान को ‘विलोमज’ कहते हैं। सूत जाति की उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राम्हणी माता और क्षत्रिय पिता के द्वारा होने से उसे शास्त्रों में विलोम जाति माना गया है।</ref> जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ।
फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान् का नाम लेते हैं! भगवान् की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ।
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फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान  का नाम लेते हैं! भगवान  की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ।
भगवान् के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्रम्हादि देवताओं को छोड़कर भगवान् के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ।
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भगवान  के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि [[लक्ष्मी|लक्ष्मीजी]] अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्रम्हादि देवताओं को छोड़कर भगवान  के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ।
ब्रम्हाजी ने भगवान् के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरण नखों से निकालकर गंगाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजी सहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान्’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है। जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है । सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं! आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ।
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ब्रम्हाजी ने भगवान  के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरण नखों से निकालकर [[गंगा|गंगाजी]] के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल [[महादेव|महादेवजी]] सहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान्’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है। जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है । सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं! आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ।
 
एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के अनिरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रम्हरूप तुरीय पद में वे स्थित थे । उसका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।
 
एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के अनिरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रम्हरूप तुरीय पद में वे स्थित थे । उसका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।
  

०८:५७, ६ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः (18)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद
महाराज परीक्षित के द्वारा कलियुग का दमन

भगवान के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होंगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण क्या या होगा। उसमें पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है । सूतजी कहते हैं—अहो! विलोम[१] जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है । फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान का नाम लेते हैं! भगवान की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है । भगवान के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्रम्हादि देवताओं को छोड़कर भगवान के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं । ब्रम्हाजी ने भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरण नखों से निकालकर गंगाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजी सहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान्’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है। जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है । सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं! आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं । एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के अनिरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रम्हरूप तुरीय पद में वे स्थित थे । उसका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उच्च वर्ण की माता और निम्न वर्ण के पिता से उत्पन्न संतान को ‘विलोमज’ कहते हैं। सूत जाति की उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राम्हणी माता और क्षत्रिय पिता के द्वारा होने से उसे शास्त्रों में विलोम जाति माना गया है।

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