"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 84": अवतरणों में अंतर
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आज जब ज्ञानमार्ग का नाम लिया जता है तब हम साधारणतया शंकर की उस पद्धिति की बात सोचते हैं जो उनके दर्शन की इन्ही धारणओं पर अवलंबित है , अर्थात् जीवन का त्याग करना होगा, क्योंकि वह माया है , भ्रम है। परंतु गीता के समय में माया वेदांत- दर्शन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्द नहीं बना था , न इस शब्द का इतने स्पष्ट रूप से वह अर्थ ही किया गया था जो शंकर ने इतनी साफ और जोरदार भाषा में किया ; क्योंकि गीता में माया की चर्चा बहुत कम है, उसमें अधिकतर प्रकृति की चर्चा है , और माया शब्द का जहां प्रयोग हुआ है वहां प्रकृति के ही अर्थ मैं, वह भी प्रकृति की निम्न कक्षा सूचित करने के लिये हुआ है; माया कहा गया है त्रिगुणत्मिका, अपरा प्रकृति को - त्रैगुण्यमयी माया। गीता में विश्च का निमित - कारण प्रकृति है , भरमाने वाली माया नहीं। अध्यात्मशास्त्र के सिद्धांतों में चाहे जो सूक्ष्म विशिष्टताएं हों, तो भी गीता में दिये हुए सांख्य और योग का जो व्यावहारिक भेद है वह वही है जो आजकल वेदांत के ज्ञानयोग और कर्मयोग में माना जाता है, और इन दोनों के फलों में जो विभिन्नता है वह भी वैसी ही है। | आज जब ज्ञानमार्ग का नाम लिया जता है तब हम साधारणतया शंकर की उस पद्धिति की बात सोचते हैं जो उनके दर्शन की इन्ही धारणओं पर अवलंबित है , अर्थात् जीवन का त्याग करना होगा, क्योंकि वह माया है , भ्रम है। परंतु गीता के समय में माया वेदांत- दर्शन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्द नहीं बना था , न इस शब्द का इतने स्पष्ट रूप से वह अर्थ ही किया गया था जो शंकर ने इतनी साफ और जोरदार भाषा में किया ; क्योंकि गीता में माया की चर्चा बहुत कम है, उसमें अधिकतर प्रकृति की चर्चा है , और माया शब्द का जहां प्रयोग हुआ है वहां प्रकृति के ही अर्थ मैं, वह भी प्रकृति की निम्न कक्षा सूचित करने के लिये हुआ है; माया कहा गया है त्रिगुणत्मिका, अपरा प्रकृति को - त्रैगुण्यमयी माया। गीता में विश्च का निमित - कारण प्रकृति है , भरमाने वाली माया नहीं। अध्यात्मशास्त्र के सिद्धांतों में चाहे जो सूक्ष्म विशिष्टताएं हों, तो भी गीता में दिये हुए सांख्य और योग का जो व्यावहारिक भेद है वह वही है जो आजकल वेदांत के ज्ञानयोग और कर्मयोग में माना जाता है, और इन दोनों के फलों में जो विभिन्नता है वह भी वैसी ही है। | ||
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१०:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
“सांख्य द्वारा जो अवस्था प्राप्त होती है योगी भी गीता की भाषा को न्याय - संगत ठहराने के लिये हमें यह मानना पडेगा कि उस काल में जो लोग ज्ञान - मार्ग का अनुसरण करते थे वे आम तौर पर सांख्य – पद्धति[१] को ही अपनाते थे। पीछे जब बौद्ध - धर्म का प्रचार हुआ तब सांख्यों का ज्ञानमार्ग बौद्ध - सिद्धांतों से बहुत कुछ आच्छन्न हो गया होगा। सांख्यों के समान ही अनीश्वरवादी और अद्वैत - विरोधी बौद्ध - मत में भी विश्व -ऊर्जा के कार्यो की अनित्यता पर बहुत जोर दिया गया है । बौद्ध - सिद्धांत विश्व - ऊर्जा को प्रकृति न कहकर कर्म कहता है, क्योंकि बौद्धों ने न तो वेदांत - प्रतिपाद्य ब्रह्म को ही स्वीकार किया न सांख्यों के अकर्ता पुरूष को, और इसलिये विवेक - बुद्धि के द्वारा कर्म की इस अनित्यता को जान लेना ही उनके यहां मोक्ष का साधन था । जब बौद्ध - धर्म के विरूद्ध प्रतिक्रिया उठी तब वह पुराने सांख्य संस्कार लेकर नहीं उठी, बल्कि उसने शंकर द्वारा प्रतिपादित वेदांत का रूप धारण किया। शंकर ने बौद्धों की अनित्यता के स्थान में उसी कोटि के वैदांतिक मायावारद की स्थपना की, और बौद्धों के असत्य, अनिर्वचनीय निर्वाण और, अभावात्मक ‘ केवल’ के स्थान में उसके विरूद्ध पर उसी तरह के अवर्णनीय सत्य , ब्रह्म , उस अनिर्वचनीय भावात्मक ‘ केवल’ की स्थपना की जिसमें नामरूप और कर्म का सर्वाथा अभाव होता है , क्योंकि उसमे ये नामरूप कभी थे ही नहीं , उनके मत से ये मात्र मन के भ्रम हैं ।
आज जब ज्ञानमार्ग का नाम लिया जता है तब हम साधारणतया शंकर की उस पद्धिति की बात सोचते हैं जो उनके दर्शन की इन्ही धारणओं पर अवलंबित है , अर्थात् जीवन का त्याग करना होगा, क्योंकि वह माया है , भ्रम है। परंतु गीता के समय में माया वेदांत- दर्शन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्द नहीं बना था , न इस शब्द का इतने स्पष्ट रूप से वह अर्थ ही किया गया था जो शंकर ने इतनी साफ और जोरदार भाषा में किया ; क्योंकि गीता में माया की चर्चा बहुत कम है, उसमें अधिकतर प्रकृति की चर्चा है , और माया शब्द का जहां प्रयोग हुआ है वहां प्रकृति के ही अर्थ मैं, वह भी प्रकृति की निम्न कक्षा सूचित करने के लिये हुआ है; माया कहा गया है त्रिगुणत्मिका, अपरा प्रकृति को - त्रैगुण्यमयी माया। गीता में विश्च का निमित - कारण प्रकृति है , भरमाने वाली माया नहीं। अध्यात्मशास्त्र के सिद्धांतों में चाहे जो सूक्ष्म विशिष्टताएं हों, तो भी गीता में दिये हुए सांख्य और योग का जो व्यावहारिक भेद है वह वही है जो आजकल वेदांत के ज्ञानयोग और कर्मयोग में माना जाता है, और इन दोनों के फलों में जो विभिन्नता है वह भी वैसी ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पर साथ ही बौद्धों के महायान संप्रदाय पर गीता का बहुत बडा प्रभाव दीख पड़ता है और बौद्धों के धर्मशास्त्रों में गीता के कुछ श्लोक अक्षरशः उदधृत हुए पाये जाते हैं । इससे यह मालूम होता है कि बौद्धमत जो पहले नैष्कम्र्यप्रवण और संबुद्ध यतियों का ही मार्ग था, पीछे बहुत कुछ गीता के प्रभाव से ही ध्यानपरायण भक्ति का और करूणात्मक कर्म का धर्म बन गया और समग्र एशिया महाद्वीप की संस्कृति पर उसका बहुत बडा प्रभाव पडा।