"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 125": अवतरणों में अंतर

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कर्मो का यज्ञ जारी है , पर इसके करने वाले अब हम नहीं , बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनंत सत्ता में उसके सांत भाग अर्थात् मन - बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है। परंतु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से? क्योंकि नैव्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना - वासना नहीं, कोई प्राप्तवय नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिये ,अपने ही आनंद में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है। इस नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुंचने के लिये साधना के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है , पर इस अवस्था में पहंचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता ? कर्म तब भी हो सकते हैं ,क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे हैं; परंतु फिर इन कर्मो का ध्येय कुछ नहीं रहता। अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागो, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है। परंतु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मो की संख्या घटाकर कम - से - कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायें जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मो को चाहे कम -से - कम न भी किया जाये - क्योंकि कर्म का कुछ महत्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है - तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्व नहीं है।  
कर्मो का यज्ञ जारी है , पर इसके करने वाले अब हम नहीं , बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनंत सत्ता में उसके सांत भाग अर्थात् मन - बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है। परंतु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से? क्योंकि नैव्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना - वासना नहीं, कोई प्राप्तवय नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिये ,अपने ही आनंद में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है। इस नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुंचने के लिये साधना के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है , पर इस अवस्था में पहंचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता ? कर्म तब भी हो सकते हैं ,क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे हैं; परंतु फिर इन कर्मो का ध्येय कुछ नहीं रहता। अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागो, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है। परंतु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मो की संख्या घटाकर कम - से - कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायें जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मो को चाहे कम -से - कम न भी किया जाये - क्योंकि कर्म का कुछ महत्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है - तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्व नहीं है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

अहंकार का वध करके हमने अपनी सत्ता और चेतना में नैवर्यक्तित्व को सिद्ध किया ; और कामना का संन्यास करके अपनी ही प्रकृति के कर्मो में नैव्र्यक्तिक लाभ किया। अब हम मुक्त हैं केवल अकर्म में ही नहीं, बल्कि कर्म में भी , हमारी मुक्ति शरीर और मन की निश्चलता और शून्यता पर निर्भर नहीं है, न कर्म करते ही हम अपनी मुक्ति से च्युत होते हैं। स्वभाविक कर्म के पूर्ण प्रवाह में भी हमारी नैव्यक्तिक आत्मा स्थिर, शांत और मुक्त रहती है। इस पूर्ण नैव्यक्तिकता से प्राप्त होने वाली मुक्ति सच्ची ,पूरी और अनिवार्य होती है; परंतु क्या यही सब कुछ है , क्या यह इस विषय की अंतिम इति है? हम कह चुके हैं कि सारा जीवन , सारे जगत का अस्तित्व एक यज्ञ है जो प्रकृति उस पुरूष के प्रीत्यर्थ किया करती है जो प्रकृति के अंदर सब का एक गूढा़तरात्मा है, जिसके अंदर प्रकृति के सब कर्म होते हैं; परंतु यज्ञ के इस वास्तविक स्परूप को हमारा अहंकार, हमारी कामना, सीमित सक्रिय बहुभावापत्र व्यक्तित्व छिपा देता है। अब हम अहंकार, कामना और सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठ चुके हैं और इस अवस्था का संशोधन करने वाली जो नैव्यक्तिकता है उससे हमने नैव्र्यक्तिक ब्रह्म को पा लिया है ; हमने अपनी सत्ता को उस आत्मा और पुरूष में मिला दिया है जिसमें सबका अस्तित्व है।
कर्मो का यज्ञ जारी है , पर इसके करने वाले अब हम नहीं , बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनंत सत्ता में उसके सांत भाग अर्थात् मन - बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है। परंतु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से? क्योंकि नैव्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना - वासना नहीं, कोई प्राप्तवय नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिये ,अपने ही आनंद में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है। इस नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुंचने के लिये साधना के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है , पर इस अवस्था में पहंचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता ? कर्म तब भी हो सकते हैं ,क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे हैं; परंतु फिर इन कर्मो का ध्येय कुछ नहीं रहता। अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागो, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है। परंतु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मो की संख्या घटाकर कम - से - कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायें जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मो को चाहे कम -से - कम न भी किया जाये - क्योंकि कर्म का कुछ महत्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है - तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्व नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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