"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 87": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
छो (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-87 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 87 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
 
(कोई अंतर नहीं)

१०:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

गीता कहती है कि , “त्रिगुणात्मक कर्म ही वेदों का विषय है ; पर हे अर्जुन, तू इस त्रिगुण से मुक्त हो जा।“[१] सब वेद उस मनुष्य के लिये निष्प्रयोजन बताये गये हैं जो ज्ञानी हैं । यहां वेदों में ,सर्वेषु वेदेषु, उपरिषदों का भी समावेश माना जा सकता है और शायद है भी, क्योंकि आगे चलकर वेद और उपनिषद् दोनों के वाचक सामान्य श्रुति शब्द की ही प्रयोग हुआ है। “चारो ओर जहां जल ही जल हो वहां किसी कुएं का जितना प्रयोजन हो सकता है उताना ही प्रयोजन समस्त वेदों का उस ब्राह्मण के लिये है जो ज्ञानी है ।“[२]यही नहीं , बल्कि शास्त्र - वचन बाधक भी होते हैं , क्योंकि शास्त्र के शब्द - शायद परस्पर- विरोधी वचनों और उनके विविध और एक दूसरे के विरूद्ध अर्थो के कारण- बुद्धि को भरमाने वाले होते हैं, जो अंदर की ज्योति से ही निश्चितमति और एकाग्र हो सकती है। भगवान् कहते हैं, “ जब तेरी बुद्धि मोह के घिराव को पार कर जायेगी तब तू अब तक सुने हुए और आगे सुने जानेवाले शास्त्र - वचनों से उदासीन हो जायेगा, जब तेरी बुद्धि जो श्रुति से भरमायी हुई है, श्रुतिविप्रतिपन्ना, समाधि में निश्चल और स्थिर होगी, तब तू योग को प्राप्त होगा।“[३] यह सब परंपरागत धार्मिक भावनाओं के लिये इतना अप्रिय है कि अपनी सुविधा देखने वाले और अवसर से लाभ उठाने वाले मानव - कौशल का गीता के कुछ श्लोकों के अर्थ को तोड़ - मरोड़ कर उनका कुछ और अर्थ करने की कोशिश करना स्वाभाविक ही था, किंतु इन श्लोकों के अर्थ स्पष्ट ओर अथ से इति तक सुसंबद्ध हैं ।
शास्त्र – वचन- संबंधी यह भाव आगे चलकर एक और श्लोक में मंडित और सुनिदिष्ट हुआ है जहां यह कहा गया है ज्ञानी का ज्ञान ‘ शब्द ’ ब्रह्म को अर्थात् वेद और उपनिषद को पार कर जाता है, अस्तु, इस विषय को हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये , क्योंकि यह तो निश्चित ही है कि गीता जैसे समन्वय - साधक और उदार शास्त्र में आर्य - संस्कृत के इन महत्वपूर्ण अंगों का विचार केवल इन्हें अस्वीकार करने या इनका खंडन करने की दृष्टि से नहीं किया गया है । गीता को कर्म के द्वारा मुक्ति का प्रतिपादन करने वाले योग मार्ग के साथ ज्ञान के द्वारा मुक्ति का प्रतिपादन करने वाले सांख्य - मार्ग का समन्वय साधना है , ज्ञान को कर्म में मिलाकर एक कर देना है । इसके साथ- ही - साथ पुरूष और प्रकृति के सिद्धांत को, जो सांख्य और योग में एक ही सरीखा है , प्रचलित वेदांत के उस ब्रह्मवाद के साथ समन्वित करना है जिसमें उपनिषदों के पुरूष, देव , ईश्वर सब एक अक्षर ब्रह्म की सर्वग्राही भावना में समा जाते हैं, और फिर गीता को ईश्वर ,परमेश्वर संबंधी योग - भावना को उस पर पडे हुए बंह्मवाद के आच्छादन से बाहर निकालकर उसके असली स्परूप में दिखाना है, ,और यह वैदांतिक ब्रह्मवाद को अस्वीकार करके नहीं ,बल्कि उसको समन्वित करके करना है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.45
  2. 2.46
  3. 2.53

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध