"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 165 श्लोक 1-34": अवतरणों में अंतर
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११:३०, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण
पंचषष्ट्यधिकशततम (165) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम- कीर्तन का माहात्म्य
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कुरुकुलतिलक पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने हित की इच्छा रखकर बाणशय्या पर सोय हुए भीष्म जी से यह पाप नाशक विषय पूछा। युधिष्ठिर बोले- पितामह! यहाँ मनुष्य के कल्याणका उपाय क्या है? क्या करने से वह सुखी होता है? किस कर्म के अनुष्ठान से उसका पाप दूर होता है? अथवा कौन-सा कर्म पाप नष्ट करने वाला है? वैशम्पायनजी कहते हैं- पुरुषप्रवर जनमेजय! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म ने सुनने की इच्छा वाले युधिष्ठिर से पुन: न्यायपूर्वक देववंश का वर्णन आरम्भ किया। भीष्मजी ने कहा- बेटा! यदि तीनों संध्याओं के ऐसी दशा में समस्तप्राणियों के लिये पृथक-पृथक धर्म सेवन में कोई दोष नहीं है। तिर्यज्योनि में पड़े हुए पशु- पक्षी आदि योनियों के लिये भी यह लोक ही गुरु (कर्तव्याक कर्तव्य का निर्देशक) है। समय देववंश और ऋषिवंश का पाठ किया जाय तो मनुष्य दिन-रात, सबेरे-शाम अपनी इन्द्रियों के द्वारा जानकर या अनजान में जो-जो पाप करता है, उन सबसे छुटकारा पा जाता है तथा वह सदा पवित्र रहता है। देवर्षि वंश का कीर्तन करने वाला पुरुष कभी अन्ध और बहरा न होकर सदा कल्याण का भागी होता है। वह तिर्यज्योनि और नकर में नहीं पड़ता, संकर योनि में जन्म नहीं लेता, कभी दु:ख से भयभीत नहीं होता और मृत्यु के समय व्याकुल नहीं होता। सावित्री देवी, वेदों के उत्पत्तिस्थान जगत्कर्ता, भगवान और ग्रहणम नारायण, तीन नेत्रों वाले उमापति महादेव, देवसेनापतियों स्कन्द, विशाल, अग्नि, वायु, प्रकाश फैलाने वाले चन्द्रमा और सूर्य, शचीपति इन्द्र, यमराज, उनकी पत्नी धूमोणी अपनी पत्नी गौरी के साथ वरुण, ऋद्धि सहित कुबेर सौम्य स्वभाव वाली देवी सुरभी गौ, महर्शि विश्रवा संकल्प, सागर, गंगा आदि नदियाँ, मरूद्रण, तप: सिद्ध वालखिलय ऋषि, श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास, नारद, पर्वत विश्वासु, हाहा, हूहू, तुम्बुरु, चित्रसेन, विख्यात देवदूत महासौभाज्यशालिनी देवकन्याएँ, दिव्य अप्सराओं के समुदाय उर्वशी, मेनका, रम्भा, मिश्रकेशी, अलम्बुषा, विश्वाची घृताची, पंचचूडा और तिलोत्तमा आदि दिव्य अप्सराएँ बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, अश्विनीकुमार पितर, धर्मशास्त्र ज्ञान, तपस्या, दीक्षा, व्यवसाय, पितामह रात, दिन, मरीचिनन्दन कश्यप, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, बुध, राहु, शनैश्चर, नक्षत्र, ऋतु, मास, पक्ष, संवत्सर विनता के पुत्र गरुड़, समुद्र, कद्रू के पुत्र सर्पगण, शतदु्र विपाशा, चन्द्रभागा, सरस्वती, सिन्धु, देविका, प्रभास, पुष्कर, गंगा, महानदी, वेणा, कावेरी, नर्मदा, कुलम्पुना, विशल्या, करतोया, अम्बुवाहिनी, सरयू, गण्डकी, लाल जलवाला महानद शोणभद्र, ताम्रा, अरुणा, वेत्रवती, पर्णाशा, गौतमी, गोदवरी, वेण्या, कृष्ण वेणा, अद्रिजा, दृषद्वती, कावेरी, चक्षु, मन्दकाकिनी, प्रयाग, प्रभास, पुण्यमय नैमिषारण्य जहाँ विश्वेश्वर का स्थान है वहां विमल सरोवर, स्वच्छ सलिल सेयुक्त पुण्यतीर्थ कुरुक्षेत्र, उत्तम समुद्र, तपस्या, दान जम्बू मार्ग, हिरण्वती, वितस्ता, प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति वेदवती, मालवा, अश्ववती, पवित्र भू-भाग, गंगा द्वारा (हरिद्वार), ऋषिकुल्या, समुद्र गामिनी पवित्र नदियाँ, पुण्यसलिला चर्मण्वती नदी, कौशिकी, युमना, भीमरथी, महानदी बाहुदा, माहेन्द्रवाणी, त्रिदिवा, नीलिका, सरस्वती, नन्दा, अपरनन्दा, तीर्थभूत, महान ह्रद, गया, फल्गुतीर्थ, देवताओं से युक्त धर्मारण्य, पवित्र देवनदी, तीनों लोकों में विख्यात, पवित्र एवं एवं सर्व पापनाशक कलयाणमय ब्रह्मनिर्मित सरोवर (पुष्करतीर्थ), दिव्य ओषधियों से युक्त हिमवानपर्वत, नाना प्रकार के धातुओं, तीर्थों, औषधों से सुशोभित विन्ध्यगिरि, मेरु, महेन्द्र, मलय, चाँदी की खानों से युक्त श्वेतगिरी, श्रृंगवान, मन्दर, नील, निषध, दर्दुर, चित्रकूट, अजनाभ, गन्धमादन पर्वत, पवित्र सोमगिरि तथा अन्यान्य पर्वत, दिशा, विदिशा, भूमि, सभी वृक्ष, विश्वेदेव, आकाश, नक्षत्र ग्रहण- ये सदा हमारी रक्षा करें तथा जिनके नाम ये गये हैं और जिनके नहीं लिये गये हैं, वे सम्पूर्ण हमलोगों की रखा करते रहें।
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