"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 193 श्लोक 18-35": अवतरणों में अंतर

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==त्रिनवत्‍यधिकशततम (193) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )==
==त्रिनवत्‍यधिकशततम (193) अध्याय: द्रोणपर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद</div>



०६:००, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रिनवत्‍यधिकशततम (193) अध्याय: द्रोणपर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

राजन ! द्रोणाचार्य को रण भूमि में गिराया गया देख अर्जुन के मारने से बचे हुए संशप्‍तकों को साथ ले सुशर्मा वहां से भाग निकला। युद्ध स्‍थल में सुवर्णमय रथ वाले द्रोण का वध हुआ देख बहुतेरे सैनिक हाथियों ओर रथों पर आरूढ़ हो तथा कितने ही योद्धा अपने घोड़ों को भी छोड़कर सब ओर से पलायन करने लगे। कुछ कौरव पिता, ताउ, और चाचा आदि को, कुछ भाईयों को, कुछ मामाओं को तथा कितने ही पुत्रों ओर मित्रों को जल्‍दी से भागने की प्रेरणा देते हुए उस समय मैदान छोड़कर चल दिये। कितने ही योद्धा अपनी सेनाओं को, दूसरे लोग भानजों को और कितने ही अपने सगे-संबंधियों को भागने की आज्ञा देते हुए दसों दिशाओं की ओर भाग खड़े हुए। उन सबके बाल बिखरे हुए थे। वे गिरते-गिरते पड़ते भाग रहे थे। दो सैनिक एक साथ या एक ओर नहीं भागते थे। उन्‍हें विश्‍वास हो गया था कि अब यह सेना नहीं बचेगी, इसीलिये उनके उत्‍साह और बल नष्‍ट हो गये थे। भरतश्रेष्‍ठ ! प्रभो ! आपके कितने ही सैनिक कवच उतारकर एक-दूसरे को पुकारते हुए भाग रहे थे। कुछ योद्धा दूसरों से ठहरो, ठहरो कहते, परन्‍तु स्‍वयं नहीं ठहरते थे। कितने ही योद्धा सारथिशून्‍य रथ से सजे-सजाये घोड़ों को खोलकर उन पर सवार हो जाते और पैरों से ही शीघ्रतापूर्वक उन्‍हें हांकने लगते थे। इस प्रकार जब सारी सेना भयभीत हो बल और उत्‍साह खोकर भाग रही थी, उस समय द्रोणपुत्र अश्‍वत्‍थामा शत्रुओं की ओर बढ़ा आ रहा था, मानो कोई ग्राह नदी के प्रवाह के प्रतिकूल जा रहा हो। इससे पहले अश्‍वत्‍थामा का उन प्रभद्रक, पांचाल, चेदि और केकय आदि गणों के साथ महान् युद्ध हो रहा था, जिनका प्रधान नेता शिखण्‍डी था (इसीलिये उसे पिता की मृत्‍यु का समाचार नहीं ज्ञात हुआ।)। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी रणदुर्मद अश्‍वत्‍थामा पाण्‍डवों की विविध सेनाओं का संहार करके किसी प्रकार उस युद्ध-संकट से मुक्‍त हुआ था। इतने ही में उसने देखा कि सारी कौरव-सेना भागी जा रही है और सभी लोग पलायन करने में उत्‍साह दिखा रहे हैं। तब द्रोण पुत्र ने दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार पूछा-। भरतनन्‍दन ! क्‍यों यह सेना भयभीत-सी होकर भागी जा रही है? राजेन्‍द्र ! इस भागती हुई सेना को आप युद्ध में ठहरने का प्रयत्‍न क्‍यों नहीं करते ? नरेश्‍वर ! तुम भी पहले के समान स्‍वस्‍थ नहीं दिखायी देते । भूपाल ! ये कर्ण आदि वीर भी रणभूमि खड़े नहीं हो रहे है। इसका क्‍या कारण है ? अन्‍य संग्राम में भी आपकी सेना इस प्रकार नहीं भागी थी। महाबाहु भरतनन्‍दन ! आपकी सेना सकुशल तो है न ? राजन ! कुरूनन्‍दन ! किस सिंह के समान पराक्रमी रथी के मारे जाने पर आपकी यह सेना इस दुर्रव्‍यस्‍था को पहुंच गयी है। यह मुझे बताइये। द्रोणपुत्र अश्‍वत्‍थामा की यह बात सुनकर नृपश्रेष्‍ठ दुर्योधन यह घोर अप्रिय समाचार स्‍वयं उसने न कह सका ।। मानो आपके पुत्र की नाव मझधार में टूट गयी थी और वह शोक के समुद्र में डूब रहा था। रथ पर बैठे हुए द्रोण कुमार को देखकर उसके नेत्रों में आंसू भर आये थे।। उस समय राजा दुर्योधन कृपाचार्य से संकोचपूर्वक कहा- गुरूदेव ! आपका कल्‍याण हो। आप ही वह सब समाचार बता दीजिये, जिससे यह सब सेना भागी जा रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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