"महाभारत वन पर्व अध्याय 111 श्लोक 14-23" के अवतरणों में अंतर
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद</div> |
लोमशजी कहते है- राजन ! तदनन्तर वेश्या ने उन सब फलों को छोड़कर स्वयं ऋष्यश्रृंग को अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भक्ष्य पदार्थ (फल आदि) दिये। उन परम सरस फलों ने उनक रूची को बढ़ाया । साथ ही सुगन्धित मालायें तथा विचित्र एवं चमकिले वस्त्र प्रदान किये । इतना ही नहीं, सने मुनिकुमार को अच्छी श्रेणी के पेय पिलाये, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । वे उसके साथ खेलने ओर जोर जोर से हॅसने लगे। वेश्या ऋष्यश्रृंग के पास ही गेंद खेलने लगी । वह अपने अंगों को मोड़ती हुई फलों के भार से लदी लता की भांति झुक जाती और ऋष्यश्रृंग मुनि को बार बार अपने अंग भर लेती थी । साथ ही अपने अंगों से उनके अंगों को इस प्रकार दबाती, मानो उनके भीतर समा जायेगी । वहां शाल, अशोक और तिलक के वृक्ष खूब फुले हुए थे । उनकी डालियों को झुकाकर वह मदोन्तय वेश्या लज्जा पाटय सा करती हुई महर्षि के उस पुत्र को लुभाने लगी । | लोमशजी कहते है- राजन ! तदनन्तर वेश्या ने उन सब फलों को छोड़कर स्वयं ऋष्यश्रृंग को अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भक्ष्य पदार्थ (फल आदि) दिये। उन परम सरस फलों ने उनक रूची को बढ़ाया । साथ ही सुगन्धित मालायें तथा विचित्र एवं चमकिले वस्त्र प्रदान किये । इतना ही नहीं, सने मुनिकुमार को अच्छी श्रेणी के पेय पिलाये, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । वे उसके साथ खेलने ओर जोर जोर से हॅसने लगे। वेश्या ऋष्यश्रृंग के पास ही गेंद खेलने लगी । वह अपने अंगों को मोड़ती हुई फलों के भार से लदी लता की भांति झुक जाती और ऋष्यश्रृंग मुनि को बार बार अपने अंग भर लेती थी । साथ ही अपने अंगों से उनके अंगों को इस प्रकार दबाती, मानो उनके भीतर समा जायेगी । वहां शाल, अशोक और तिलक के वृक्ष खूब फुले हुए थे । उनकी डालियों को झुकाकर वह मदोन्तय वेश्या लज्जा पाटय सा करती हुई महर्षि के उस पुत्र को लुभाने लगी । | ||
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इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में ऋष्यश्रृंगेपाख्यान विषयक एक सौं ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ । | इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में ऋष्यश्रृंगेपाख्यान विषयक एक सौं ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ । | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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०९:४८, २५ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
लोमशजी कहते है- राजन ! तदनन्तर वेश्या ने उन सब फलों को छोड़कर स्वयं ऋष्यश्रृंग को अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भक्ष्य पदार्थ (फल आदि) दिये। उन परम सरस फलों ने उनक रूची को बढ़ाया । साथ ही सुगन्धित मालायें तथा विचित्र एवं चमकिले वस्त्र प्रदान किये । इतना ही नहीं, सने मुनिकुमार को अच्छी श्रेणी के पेय पिलाये, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । वे उसके साथ खेलने ओर जोर जोर से हॅसने लगे। वेश्या ऋष्यश्रृंग के पास ही गेंद खेलने लगी । वह अपने अंगों को मोड़ती हुई फलों के भार से लदी लता की भांति झुक जाती और ऋष्यश्रृंग मुनि को बार बार अपने अंग भर लेती थी । साथ ही अपने अंगों से उनके अंगों को इस प्रकार दबाती, मानो उनके भीतर समा जायेगी । वहां शाल, अशोक और तिलक के वृक्ष खूब फुले हुए थे । उनकी डालियों को झुकाकर वह मदोन्तय वेश्या लज्जा पाटय सा करती हुई महर्षि के उस पुत्र को लुभाने लगी । ऋष्यश्रृंग की आकृति में किचिंत विकार देखकर उसने बार बार उनके शरीर को आलिंगन के द्वारा दबाया और अग्निहोत्र का बहाना बनाकर वह उनके द्वारा देखी जाती हुई धीरे धीरे वहां से चली गर्इ । उसके चले जाने पर उसके अनुराग से उन्मत्त मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग अचेत से हो गये। उस र्निजन स्थान में उनकी मनोवृत्ति उसी की ओर लगी रही और वे लम्बी सॉस खींचते हुए अत्यंत व्यथित हो उठे । तदनन्तर दो घड़ी के बाद हरे पीले नेत्रों वाले काश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि वहां आ पहूंचे । वे सिर से लेकर पैरों के पंखों तक रामावलियों से भरे हुए थे । महात्मा विभाण्डक स्वाध्यायशील, सदाचारी तथा समाधिनिष्ट महर्षि थे । निकट आने पर उन्होंने पुत्र को अकेला उदासीन भाव से चिन्तामग्न होकर बैठा देखा । उसके चित्त की दशा विपरीत थी । वह बार बार ऊपर की ओर दृष्टि किये उच्छावास ले रहा था । इस दयनीय दशा में पुत्र को देखकर विभाण्डक मुनि ने पूछा- तात ! आज तुम अग्निकुण्ड में समिधाएं क्यों नहीं रख रहे हो ! क्या तुमने अग्निहोत्र कर लिया स्त्रुक और स्त्रुआ आदि यज्ञपात्रों को भली भांति शुद्ध करके रखा है न कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने हवन के लिये दूध देनेवाली गाय का बछड़ा खोल दिया हो जिससे वह सारा दूध पी गया हो। बेटा ! आज तुम पहले जैसे दिखायी नहीं देते। किसी भारी चिन्ता में निमग्न हो, अपनी सुध बुध खो बैठे हो। क्या कारण है जो आज तुम अत्यंत दीन हो रहे हो । मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, आज यहां कौन आया था । इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में ऋष्यश्रृंगेपाख्यान विषयक एक सौं ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
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