"महाभारत आदि पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-13": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद</div>
            
            
युधिष्ठिर, भीम ओर अर्जुन की उत्प त्ति
युधिष्ठिर, भीम ओर अर्जुन की उत्पत्ति
वैशम्पाियनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब गान्धाभरी को गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्ती  ने गर्भ धारण करने के लिये अच्यु त स्वअरुप भगवान् धर्म का आवाहन किया । देवी कुन्ती  ने बड़ी उतावली के साथ धर्म देवता के लिये पूजा के उपहार अर्पित किये। तत्पनश्चात् पूर्वकाल में मह र्षि दुर्वासा ने जो मन्त्री दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया । तब मन्त्र  बल से आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्य के समान तेजस्वी  विमान पर बैठकर उस स्था्न पर आये, जहां कुन्ती  देवी जप में लगी हुई थी । तब धर्म ने हंसकर कहा- ‘कुन्ती् ! बोलो, तुम्हेंक क्या‍ दूं?’ धर्म के द्वारा हास्य  पूर्वक इस प्रकार पूछने पर कुन्तीक बोली- ‘मुझे पुत्र दीजिये’ । तदनन्तोर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्म के साथ समागम करके सुन्दुरांगी कुन्ती् ने ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्तर प्राणियों का हित करने वाला था । तदनन्तरर जब चन्द्र मा ज्ये ष्ठ नक्षत्र पर थे, सूर्य तुला राशि पर विराजमान थे, शुक्ल। पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पञ्चमी तिथी थी और अत्यकन्त‍ श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवां मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीरदेवी ने एक उत्तम पुत्र को जन्म  दिया, जो महान यशस्वीत था। उस पुत्र के जन्मा लेते ही आकाशवाणी हुई -। ‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्मादओं में अग्रगण्या होगा और इस पृथ्वीु पर पराक्रमी एवं सत्यहवादी राजा होगा। पाण्डुर का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्याअत हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याकति प्राप्त करेगा; यह यशस्वीर, तेजस्वीश तथा सदाचारी होगा’ । उस धर्मात्माि पुत्र को पाकर राजा पाण्डु  ने पुन: (आग्रह पूर्वक) कुन्तीर से कहा- । प्रिये ! क्षत्रिय को बल से बड़ा कहा गया है। अत: एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो।
वैशम्पाियनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब गान्धाभरी को गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्ती  ने गर्भ धारण करने के लिये अच्यु त स्वरुप भगवान् धर्म का आवाहन किया । देवी कुन्ती  ने बड़ी उतावली के साथ धर्म देवता के लिये पूजा के उपहार अर्पित किये। तत्पनश्चात् पूर्वकाल में महर्षि दुर्वासा ने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया । तब मन्त्र  बल से आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्य के समान तेजस्वी  विमान पर बैठकर उस स्था्न पर आये, जहां कुन्ती  देवी जप में लगी हुई थी । तब धर्म ने हंसकर कहा- ‘कुन्ती् ! बोलो, तुम्हें क्या‍ दूं?’ धर्म के द्वारा हास्य  पूर्वक इस प्रकार पूछने पर कुन्ती बोली- ‘मुझे पुत्र दीजिये’ । तदनन्तोर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्म के साथ समागम करके सुन्दुरांगी कुन्ती् ने ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्तर प्राणियों का हित करने वाला था । तदनन्तरर जब चन्द्र मा ज्येष्ठ नक्षत्र पर थे, सूर्य तुला राशि पर विराजमान थे, शुक्ल। पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पञ्चमी तिथी थी और अत्यकन्त‍ श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवां मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीरदेवी ने एक उत्तम पुत्र को जन्म  दिया, जो महान यशस्वीत था। उस पुत्र के जन्मा लेते ही आकाशवाणी हुई -। ‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्मादओं में अग्रगण्या होगा और इस पृथ्वीु पर पराक्रमी एवं सत्यहवादी राजा होगा। पाण्डुर का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्याअत हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याकति प्राप्त करेगा; यह यशस्वीर, तेजस्वीश तथा सदाचारी होगा’ । उस धर्मात्माि पुत्र को पाकर राजा पाण्डु  ने पुन: (आग्रह पूर्वक) कुन्ती से कहा- । प्रिये ! क्षत्रिय को बल से बड़ा कहा गया है। अत: एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो।
जैसे अश्वमेध सब यज्ञों में श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूमर्ण प्रकाश करने वालों में प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्योंर में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बल में सबसे बढ़-चढ़कर है। अत: सुन्दूरी ! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्यश से समस्ता प्राणियों द्वारा प्रशंसित देव श्रेष्ठ वायु का वि‍धि पूर्वक आवाहन करो। वे हम लोगों के लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्यों  में सबसे अधिक प्राण शक्ति से सम्पअन्न और बलवान होगा। स्वाहमी के इस प्रकार कहने पर कुन्तीन ने तब वायुदेव का ही आवाहन किया । तब महाबली वायु मृग पर आरुढ़ हो कुन्तीा के पास आये और यों बोले- कुन्तीव ! तुम्हाणरे मन में जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हेंय क्याे दूं? । कुन्तीन ने लज्जित होकर मुस्कजराते हुए कहा- सुरश्रेष्ठ ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये जो महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमण्डय को चूर करने वाला हो ।
जैसे अश्वमेध सब यज्ञों में श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूमर्ण प्रकाश करने वालों में प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्योंर में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बल में सबसे बढ़-चढ़कर है। अत: सुन्दूरी ! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्यश से समस्त प्राणियों द्वारा प्रशंसित देव श्रेष्ठ वायु का वि‍धि पूर्वक आवाहन करो। वे हम लोगों के लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्यों  में सबसे अधिक प्राण शक्ति से सम्पन्न और बलवान होगा। स्वामी के इस प्रकार कहने पर कुन्ती ने तब वायुदेव का ही आवाहन किया । तब महाबली वायु मृग पर आरुढ़ हो कुन्ती के पास आये और यों बोले- कुन्तीव ! तुम्हाणरे मन में जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्याे दूं? । कुन्ती ने लज्जित होकर मुस्कराते हुए कहा- सुरश्रेष्ठ ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये जो महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमण्डय को चूर करने वाला हो ।


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०९:३४, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण

द्वाविंशत्यलधिकशततम (122) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर, भीम ओर अर्जुन की उत्पत्ति वैशम्पाियनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब गान्धाभरी को गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्ती ने गर्भ धारण करने के लिये अच्यु त स्वरुप भगवान् धर्म का आवाहन किया । देवी कुन्ती ने बड़ी उतावली के साथ धर्म देवता के लिये पूजा के उपहार अर्पित किये। तत्पनश्चात् पूर्वकाल में महर्षि दुर्वासा ने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया । तब मन्त्र बल से आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर बैठकर उस स्था्न पर आये, जहां कुन्ती देवी जप में लगी हुई थी । तब धर्म ने हंसकर कहा- ‘कुन्ती् ! बोलो, तुम्हें क्या‍ दूं?’ धर्म के द्वारा हास्य पूर्वक इस प्रकार पूछने पर कुन्ती बोली- ‘मुझे पुत्र दीजिये’ । तदनन्तोर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्म के साथ समागम करके सुन्दुरांगी कुन्ती् ने ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्तर प्राणियों का हित करने वाला था । तदनन्तरर जब चन्द्र मा ज्येष्ठ नक्षत्र पर थे, सूर्य तुला राशि पर विराजमान थे, शुक्ल। पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पञ्चमी तिथी थी और अत्यकन्त‍ श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवां मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीरदेवी ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया, जो महान यशस्वीत था। उस पुत्र के जन्मा लेते ही आकाशवाणी हुई -। ‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्मादओं में अग्रगण्या होगा और इस पृथ्वीु पर पराक्रमी एवं सत्यहवादी राजा होगा। पाण्डुर का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्याअत हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याकति प्राप्त करेगा; यह यशस्वीर, तेजस्वीश तथा सदाचारी होगा’ । उस धर्मात्माि पुत्र को पाकर राजा पाण्डु ने पुन: (आग्रह पूर्वक) कुन्ती से कहा- । प्रिये ! क्षत्रिय को बल से बड़ा कहा गया है। अत: एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो।

जैसे अश्वमेध सब यज्ञों में श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूमर्ण प्रकाश करने वालों में प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्योंर में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बल में सबसे बढ़-चढ़कर है। अत: सुन्दूरी ! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्यश से समस्त प्राणियों द्वारा प्रशंसित देव श्रेष्ठ वायु का वि‍धि पूर्वक आवाहन करो। वे हम लोगों के लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्यों में सबसे अधिक प्राण शक्ति से सम्पन्न और बलवान होगा। स्वामी के इस प्रकार कहने पर कुन्ती ने तब वायुदेव का ही आवाहन किया । तब महाबली वायु मृग पर आरुढ़ हो कुन्ती के पास आये और यों बोले- कुन्तीव ! तुम्हाणरे मन में जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्याे दूं? । कुन्ती ने लज्जित होकर मुस्कराते हुए कहा- सुरश्रेष्ठ ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये जो महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमण्डय को चूर करने वाला हो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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