"महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 15-31": अवतरणों में अंतर

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==त्रयोविंशत्याधिकशततम  (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)==
==त्रयोविंशत्याधिकशततम  (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद</div>
वैशम्पाहयनजी कहते हैं- जनमेजय ! महाराज पाण्डु् के यों कहने पर कुन्तीह ने माद्री से कहा- तुम एक बार किसी देवता का चिन्तयन करो, उससे तुम्हें  योग्य् संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है । तब माद्री ने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारों का स्मतरण किया। तब उन दोनों ने आकर माद्री के गर्भ से दो जुड़वे पुत्र उत्पान्न किये । उनमें से एक का नाम नकुल था और दूसरे का सहदेव। पृथ्वीर पर सुन्दपर रुप में उन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। पहले की तरह उन दोनों यमल संतानों के विषय में भी आकाशवाणी ने कहा- । ये दोनों बालक अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रुप और गुणों से सम्पेन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप सम्प१त्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे । तदनन्तरर शतश्रंग निवासी ॠषियों ने उन सबके नामकरण संस्कार किये। उन्हें  आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रक्खे ।
वैशम्पाहयनजी कहते हैं- जनमेजय ! महाराज पाण्डु् के यों कहने पर कुन्तीह ने माद्री से कहा- तुम एक बार किसी देवता का चिन्तयन करो, उससे तुम्हें  योग्य् संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है । तब माद्री ने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारों का स्मतरण किया। तब उन दोनों ने आकर माद्री के गर्भ से दो जुड़वे पुत्र उत्पान्न किये । उनमें से एक का नाम नकुल था और दूसरे का सहदेव। पृथ्वीर पर सुन्दपर रुप में उन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। पहले की तरह उन दोनों यमल संतानों के विषय में भी आकाशवाणी ने कहा- । ये दोनों बालक अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रुप और गुणों से सम्पेन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप सम्प१त्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे । तदनन्तरर शतश्रंग निवासी ॠषियों ने उन सबके नामकरण संस्कार किये। उन्हें  आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रक्खे।


कुन्ती के ज्येिष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रक्खा  गया । उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्री पुत्रों से जो पहले उत्प न्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया । वे कुरुश्रेष्ठ पाण्ड वगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्प न्न हुए थे, तो भी देवस्वदरुप होने के कारण पांच संवत्स्रों की भांति एक-से सुशोभित हो रहे थे । वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वुरुप महा तेजस्वीे पुत्रों को देखकर महाराज पाण्डुश को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दर में मग्न। हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्त् मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे। तनदन्त र पाण्डुन ने माद्री से संतान की उत्पबत्ति कराने के लिये कुन्तीम को पुन: प्रेरित किया । राजन् ! जब एकान्त  में पाण्डुभ ने कुन्तीउ वह बात कही, तब सती कुन्तीय पाण्डुी से इस प्रकार बोली- महाराज ! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी । अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्काहर न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूं। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मै ऐसी मूर्खा हूं कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन् ! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूं । इस प्रकार पाण्डुर के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वीै होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। चन्द्रपमा की भांति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था । उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढ़ाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यलमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुन पुत्र वहां एकत्र होने वाले महर्षियों को आश्चयर्य-चकित कर देते थे ।  
कुन्ती के ज्येिष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रक्खा  गया । उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्री पुत्रों से जो पहले उत्प न्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया । वे कुरुश्रेष्ठ पाण्ड वगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्प न्न हुए थे, तो भी देवस्वदरुप होने के कारण पांच संवत्स्रों की भांति एक-से सुशोभित हो रहे थे । वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वुरुप महा तेजस्वीे पुत्रों को देखकर महाराज पाण्डुश को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दर में मग्न। हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्त् मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे। तनदन्त र पाण्डुन ने माद्री से संतान की उत्पबत्ति कराने के लिये कुन्तीम को पुन: प्रेरित किया । राजन् ! जब एकान्त  में पाण्डुभ ने कुन्तीउ वह बात कही, तब सती कुन्तीय पाण्डुी से इस प्रकार बोली- महाराज ! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी । अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्काहर न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूं। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मै ऐसी मूर्खा हूं कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन् ! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूं । इस प्रकार पाण्डुर के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वीै होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। चन्द्रपमा की भांति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था । उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढ़ाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यलमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुन पुत्र वहां एकत्र होने वाले महर्षियों को आश्चयर्य-चकित कर देते थे ।  

०७:५८, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण

त्रयोविंशत्याधिकशततम (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पाहयनजी कहते हैं- जनमेजय ! महाराज पाण्डु् के यों कहने पर कुन्तीह ने माद्री से कहा- तुम एक बार किसी देवता का चिन्तयन करो, उससे तुम्हें योग्य् संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है । तब माद्री ने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारों का स्मतरण किया। तब उन दोनों ने आकर माद्री के गर्भ से दो जुड़वे पुत्र उत्पान्न किये । उनमें से एक का नाम नकुल था और दूसरे का सहदेव। पृथ्वीर पर सुन्दपर रुप में उन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। पहले की तरह उन दोनों यमल संतानों के विषय में भी आकाशवाणी ने कहा- । ये दोनों बालक अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रुप और गुणों से सम्पेन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप सम्प१त्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे । तदनन्तरर शतश्रंग निवासी ॠषियों ने उन सबके नामकरण संस्कार किये। उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रक्खे।

कुन्ती के ज्येिष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रक्खा गया । उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्री पुत्रों से जो पहले उत्प न्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया । वे कुरुश्रेष्ठ पाण्ड वगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्प न्न हुए थे, तो भी देवस्वदरुप होने के कारण पांच संवत्स्रों की भांति एक-से सुशोभित हो रहे थे । वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वुरुप महा तेजस्वीे पुत्रों को देखकर महाराज पाण्डुश को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दर में मग्न। हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्त् मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे। तनदन्त र पाण्डुन ने माद्री से संतान की उत्पबत्ति कराने के लिये कुन्तीम को पुन: प्रेरित किया । राजन् ! जब एकान्त में पाण्डुभ ने कुन्तीउ वह बात कही, तब सती कुन्तीय पाण्डुी से इस प्रकार बोली- महाराज ! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी । अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्काहर न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूं। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मै ऐसी मूर्खा हूं कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन् ! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूं । इस प्रकार पाण्डुर के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वीै होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। चन्द्रपमा की भांति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था । उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढ़ाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यलमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुन पुत्र वहां एकत्र होने वाले महर्षियों को आश्चयर्य-चकित कर देते थे ।


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