"महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 15-31": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
छो (श्रेणी:महाभारत आदिपर्व; Adding category Category:महाभारत अादिपर्व (को हटा दिया गया हैं।))
 
पंक्ति ८: पंक्ति ८:
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत आदिपर्व]]   
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]]
[[Category:महाभारत अादिपर्व]]   
__INDEX__
__INDEX__

११:५८, १३ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

त्रयोविंशत्याधिकशततम (123) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! महाराज पाण्‍डु के यों कहने पर कुन्‍ती ने माद्री से कहा- तुम एक बार किसी देवता का चिन्‍तन करो, उससे तुम्‍हें योग्‍य संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है । तब माद्री ने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारों का स्‍मरण किया। तब उन दोनों ने आकर माद्री के गर्भ से दो जुड़वे पुत्र उत्‍पन्न किये । उनमें से एक का नाम नकुल था और दूसरे का सहदेव। पृथ्‍वी पर सुन्‍दर रुप में उन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। पहले की तरह उन दोनों यमल संतानों के विषय में भी आकाशवाणी ने कहा- । ये दोनों बालक अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रुप और गुणों से सम्‍पन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप सम्‍पत्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे । तदनन्‍तर शतश्रंग निवासी ॠषियों ने उन सबके नामकरण संस्‍कार किये। उन्‍हें आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रक्‍खे । कुन्‍ती के ज्‍येष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रक्‍खा गया । उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्री पुत्रों से जो पहले उत्‍पन्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया । वे कुरुश्रेष्ठ पाण्‍डवगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्‍पन्न हुए थे, तो भी देवस्‍वरुप होने के कारण पांच संवत्‍सरों की भांति एक-से सुशोभित हो रहे थे । वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्‍वरुप महा तेजस्‍वी पुत्रों को देखकर महाराज पाण्‍डु को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्‍द में मग्‍न हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्‍त मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे। तनदन्‍तर पाण्‍डु ने माद्री से संतान की उत्‍पत्ति कराने के लिये कुन्‍ती को पुन: प्रेरित किया । राजन् ! जब एकान्‍त में पाण्‍डु ने कुन्‍ती वह बात कही, तब सती कुन्‍ती पाण्‍डु से इस प्रकार बोली- महाराज ! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी । अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्‍कार न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूं। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मैं ऐसी मूर्खा हूं कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन् ! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूं । इस प्रकार पाण्‍डु के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्‍पन्न हुए, जो यशस्‍वी होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्‍पन्न थे। चन्‍द्रमा की भांति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था । उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढ़ाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्‍यमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्‍डु पुत्र वहां एकत्र होने वाले महर्षियों को आश्‍चर्य-चकित कर देते थे ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।