"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 75": अवतरणों में अंतर

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वह प्रकृति, उसके चौबीस तीन गुणों और चौबीस तत्वों को स्वीकार करती है ; प्रकृति द्वारा समस्त कर्मो का हेना और पुरूष का अकर्ता होना भी गीता को स्वीकार है ; विश्व में अनेक सचेतन प्राणियों का होना भी उसे स्वीकार है अहंकार ; का तथा बुद्धि की भेदभाव करने वाली क्रिया का लय और प्रकृति के गुण - कर्म का अतिक्रमण ही मोक्ष का साधन है , इसको भी गीता स्वीकार करती है । आरंभ से ही अर्जुन से जिस योग की साधना करने को कहा जा रहा है ,वह है बुद्धियोग। परंतु एक महत्वपूर्ण व्यत्यय या भेद है । यहां पुरूष एक है , अनेक नहीं । गीता का मुक्त , शरीर , अचल , सनातन, अक्षर पुरूष केवल एक बात को छोडकर और सब बातों मे वेदांत की भाषा मे सांख्यों का ही सनातन, अकर्ता , अचल, अक्षर पुरूष है । पर बहुत बड़ा भेद यही है कि यह पुरूष एक है , बहु नहीं । इससे वह बड़ीकठिनाई उपस्थित होती है जिसको सांख्या का बहुपुरूषवाद टाल जाता है , और फिर किसी सर्वथा नये समाधान की आवश्यकता खड़ी हो जाती है । गीता यह समाधान, अपने वैदांतिक सांख्य में वैदांतिक योग के सिद्धांतों और तत्वों को लाकर करती है । जो पहला नया महत्वपूर्ण सिद्धांत यहां प्राप्त होता है वह स्वयं पुरूष के संबंध में है । प्रकृति कर्म का संचालन करती है पुरूष के आनंद के लिये। पर यह आनंद केसे साधित होता है?  
वह प्रकृति, उसके चौबीस तीन गुणों और चौबीस तत्वों को स्वीकार करती है ; प्रकृति द्वारा समस्त कर्मो का हेना और पुरूष का अकर्ता होना भी गीता को स्वीकार है ; विश्व में अनेक सचेतन प्राणियों का होना भी उसे स्वीकार है अहंकार ; का तथा बुद्धि की भेदभाव करने वाली क्रिया का लय और प्रकृति के गुण - कर्म का अतिक्रमण ही मोक्ष का साधन है , इसको भी गीता स्वीकार करती है । आरंभ से ही अर्जुन से जिस योग की साधना करने को कहा जा रहा है ,वह है बुद्धियोग। परंतु एक महत्वपूर्ण व्यत्यय या भेद है । यहां पुरूष एक है , अनेक नहीं । गीता का मुक्त , शरीर , अचल , सनातन, अक्षर पुरूष केवल एक बात को छोडकर और सब बातों मे वेदांत की भाषा मे सांख्यों का ही सनातन, अकर्ता , अचल, अक्षर पुरूष है । पर बहुत बड़ा भेद यही है कि यह पुरूष एक है , बहु नहीं । इससे वह बड़ीकठिनाई उपस्थित होती है जिसको सांख्या का बहुपुरूषवाद टाल जाता है , और फिर किसी सर्वथा नये समाधान की आवश्यकता खड़ी हो जाती है । गीता यह समाधान, अपने वैदांतिक सांख्य में वैदांतिक योग के सिद्धांतों और तत्वों को लाकर करती है । जो पहला नया महत्वपूर्ण सिद्धांत यहां प्राप्त होता है वह स्वयं पुरूष के संबंध में है । प्रकृति कर्म का संचालन करती है पुरूष के आनंद के लिये। पर यह आनंद केसे साधित होता है?  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

असंख्य प्राणियों मे से कुछ ही मोक्ष को प्राप्त होते या मोक्ष - मार्ग के अनुगामी होते हैं ; शेष सब प्राणी जहां - के - तहां रहते हैं और विश्व- प्रकृति की जो क्रीडा उनके साथ हो रही है उसमें इस क्षिप्र त्याग से उस प्रकृति को रंचमात्र भी असुविधा नहीं होती जब कि उसका सारा कारबार ही इस कार्य से बंद हो जाना चाहिये था । इसकी व्याख्या के लिये यही कहा जा सकता है कि पुरूष अनेक हैं और वे सब- के - सब स्वतत्र हैं । वैदातिक अद्वैतवाद की दृष्टि के अनुसार यदि इसकी कोई न्याय - संगत व्याख्या हो सकती है तो वह मायावाद है । पर मायावाद को मान लेने पर यह सारा प्रपंच एक स्वप्नमात्र हो जाता है, तब बंधन और मुक्ति दोनों ही अविद्या की अवस्थएं , माया की व्यावहारिक भ्रांतिमात्र हो जाती है; वास्तव में न कोई बद्ध है, न कोई मुक्त। सांख्य जो अधिक थार्थवादी है , सृष्टि - विषयक इस मायिक भावना को स्वीकार नहीं करता कि यह सब दृष्टि भ्रम है । इसलिये यह वेदांत के इस समाधान को स्वीकार नहीं कर सकता । इस प्रकार भी सांख्यों की जगत् - विशलेषण- पद्धति से प्राप्त निष्कर्षो को ग्रहण करते हुए बहु पुरूष का सिद्धांत अपरिहार्य रूप से मानना पडता है। गीता सांख्य के इस विश्लेषण की ग्रहण करके अपना उपदेश आरम्भ करती है और जहां वह योग का निरूपण करती है वहां भी पहले तो ऐसा दिखायी देता है मानो वह सांख्य के इस विचार को प्रायः पूर्णतया स्वीकार करती है ।
वह प्रकृति, उसके चौबीस तीन गुणों और चौबीस तत्वों को स्वीकार करती है ; प्रकृति द्वारा समस्त कर्मो का हेना और पुरूष का अकर्ता होना भी गीता को स्वीकार है ; विश्व में अनेक सचेतन प्राणियों का होना भी उसे स्वीकार है अहंकार ; का तथा बुद्धि की भेदभाव करने वाली क्रिया का लय और प्रकृति के गुण - कर्म का अतिक्रमण ही मोक्ष का साधन है , इसको भी गीता स्वीकार करती है । आरंभ से ही अर्जुन से जिस योग की साधना करने को कहा जा रहा है ,वह है बुद्धियोग। परंतु एक महत्वपूर्ण व्यत्यय या भेद है । यहां पुरूष एक है , अनेक नहीं । गीता का मुक्त , शरीर , अचल , सनातन, अक्षर पुरूष केवल एक बात को छोडकर और सब बातों मे वेदांत की भाषा मे सांख्यों का ही सनातन, अकर्ता , अचल, अक्षर पुरूष है । पर बहुत बड़ा भेद यही है कि यह पुरूष एक है , बहु नहीं । इससे वह बड़ीकठिनाई उपस्थित होती है जिसको सांख्या का बहुपुरूषवाद टाल जाता है , और फिर किसी सर्वथा नये समाधान की आवश्यकता खड़ी हो जाती है । गीता यह समाधान, अपने वैदांतिक सांख्य में वैदांतिक योग के सिद्धांतों और तत्वों को लाकर करती है । जो पहला नया महत्वपूर्ण सिद्धांत यहां प्राप्त होता है वह स्वयं पुरूष के संबंध में है । प्रकृति कर्म का संचालन करती है पुरूष के आनंद के लिये। पर यह आनंद केसे साधित होता है?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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