"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 78": अवतरणों में अंतर
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अद्वैतवाद की सूत्रबद्ध परिभाषाओं का अतिक्रम कर जाने का दावा करने वाले उच्चतम भक्तियोग का आधार यही पुरूषोत्तम - भाव है और भक्ति - प्रधान पुराणों के पीछे भी यही भाव है। गीता सांख्यशास्त्र के प्रकृति - विश्लेषण के चौखटे के अंदर भी बंधी नहीं रहती ; क्योंकि इस विश्लेषण के अनुसार प्रकृति में केवल अहंकार को स्थान मिलता है, बहुपुरूष को नहीं - वहां पुरूष प्रकृति का कोई अशं नहीं ,बल्कि प्रकृति से पृथक है इसके विपरीत गीता का सिद्धांत यह है कि परमेश्वर ही अपने स्वभाव से जीव बनता है । यह कैसे संभव है जब विश्व - प्रकृति के चौबीस तत्व है, चौबीस छोड़कर कोई पच्चीसवां तत्व नहीं? गीता के भगवान् गुरू कहते है कि हां, त्रिगुणात्मिका प्रकृति के बाह्मकर्म का यही सही विवरण है और इस विवरण में पुरूष और प्रकृति का जैसा संबंध बताया गया है, वह भी विल्कुल सही है और प्रवृत्ति या निवृति के साधन में इसका बहुत बड़ा व्यावहारिक उपयोग भी है; परंतु यह त्रिगुणत्मिक अपरा प्रकृति है जो जड और बाह्म है, इसके परे एक परा प्रकृति है जो चिस्वरूपा और भागवत - भावरूपा है और यही परा प्रकृति जीव बनी है। | अद्वैतवाद की सूत्रबद्ध परिभाषाओं का अतिक्रम कर जाने का दावा करने वाले उच्चतम भक्तियोग का आधार यही पुरूषोत्तम - भाव है और भक्ति - प्रधान पुराणों के पीछे भी यही भाव है। गीता सांख्यशास्त्र के प्रकृति - विश्लेषण के चौखटे के अंदर भी बंधी नहीं रहती ; क्योंकि इस विश्लेषण के अनुसार प्रकृति में केवल अहंकार को स्थान मिलता है, बहुपुरूष को नहीं - वहां पुरूष प्रकृति का कोई अशं नहीं ,बल्कि प्रकृति से पृथक है इसके विपरीत गीता का सिद्धांत यह है कि परमेश्वर ही अपने स्वभाव से जीव बनता है । यह कैसे संभव है जब विश्व - प्रकृति के चौबीस तत्व है, चौबीस छोड़कर कोई पच्चीसवां तत्व नहीं? गीता के भगवान् गुरू कहते है कि हां, त्रिगुणात्मिका प्रकृति के बाह्मकर्म का यही सही विवरण है और इस विवरण में पुरूष और प्रकृति का जैसा संबंध बताया गया है, वह भी विल्कुल सही है और प्रवृत्ति या निवृति के साधन में इसका बहुत बड़ा व्यावहारिक उपयोग भी है; परंतु यह त्रिगुणत्मिक अपरा प्रकृति है जो जड और बाह्म है, इसके परे एक परा प्रकृति है जो चिस्वरूपा और भागवत - भावरूपा है और यही परा प्रकृति जीव बनी है। | ||
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०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अक्षर, कूटस्थ अविकाय पुरूष निश्रल - नीरव और निष्ष्क्रिय आत्मा है, यह भागवत सत्ता की एकत्वावस्था यद्यपि अक्षर पुरूष परम है, पर उससे भी परे एक परम पुरूष है, उपनिषदें ऐसा कहतीयद्यपि अक्षर पुरूष परम है, पर उससे भी परे एक परम पुरूष है, उपनिषदें ऐसा कहती हैं। है, यहां पुरूष प्रकृति का साक्षी है, पर प्रकृति के कार्यो में लीन नहीं , यह प्रकृति और उसके कर्मो से मुक्त, अकर्ता पुरूष है। उत्तम पुरूष परमेश्वर, परब्रह्म, परमात्मा है, जिसमें अक्षर का एकत्व और क्षर का बहुत्व ,दोनों ही अवस्थाएं सन्निविष्ट है। वह अपनी प्रकृति की विशाल गतिशीलता और कर्म के द्वारा, अपनी कन्नी शक्ति , अपने संकल्प और सामथ्र्य के द्वारा जगत् में अपने - आपको व्यक्त करता है और अपनी महत्तर निस्तब्धता और अचलता के द्वारा उससे अलग रहता है; फिर भी वह अपने पुरूषोत्तम रूप में, प्रकृति से अलावा और प्रकृति से आसक्ति इन दोनों अवस्थाओं के ही परे है। पुरूषोत्तम की यह भावना यद्यपि उपनिषदों में सवत्र ही अभिप्रेत है, तथापि इसको स्पष्ट और विनिश्रत रूप से गीता ने ही सामने रखा है और भारतीय धार्मिक चेतना के पिछले संस्कारों पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है ।
अद्वैतवाद की सूत्रबद्ध परिभाषाओं का अतिक्रम कर जाने का दावा करने वाले उच्चतम भक्तियोग का आधार यही पुरूषोत्तम - भाव है और भक्ति - प्रधान पुराणों के पीछे भी यही भाव है। गीता सांख्यशास्त्र के प्रकृति - विश्लेषण के चौखटे के अंदर भी बंधी नहीं रहती ; क्योंकि इस विश्लेषण के अनुसार प्रकृति में केवल अहंकार को स्थान मिलता है, बहुपुरूष को नहीं - वहां पुरूष प्रकृति का कोई अशं नहीं ,बल्कि प्रकृति से पृथक है इसके विपरीत गीता का सिद्धांत यह है कि परमेश्वर ही अपने स्वभाव से जीव बनता है । यह कैसे संभव है जब विश्व - प्रकृति के चौबीस तत्व है, चौबीस छोड़कर कोई पच्चीसवां तत्व नहीं? गीता के भगवान् गुरू कहते है कि हां, त्रिगुणात्मिका प्रकृति के बाह्मकर्म का यही सही विवरण है और इस विवरण में पुरूष और प्रकृति का जैसा संबंध बताया गया है, वह भी विल्कुल सही है और प्रवृत्ति या निवृति के साधन में इसका बहुत बड़ा व्यावहारिक उपयोग भी है; परंतु यह त्रिगुणत्मिक अपरा प्रकृति है जो जड और बाह्म है, इसके परे एक परा प्रकृति है जो चिस्वरूपा और भागवत - भावरूपा है और यही परा प्रकृति जीव बनी है।
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