"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 51": अवतरणों में अंतर
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किसी ग्रन्थ के प्रयोजन का निर्धारण करते हुए हमें उस प्रश्न को देखना चाहिए, जिसे लेकर वह प्रारम्भ होता है (उपक्रम), और उस निष्कर्ष को देखना चाहिए, जिसके साथ वह समाप्त होता है (उपसंहार)। गीता एक समस्या को लेकर प्रारम्भ होती है। अर्जुन युद्ध करने से इनकार कर देता है और कठिनाइयां उपस्थित करता है। वह कर्म से दूर रहने और संसार को त्यागने के लिए युक्तियां प्रस्तुत करता है, जो सुनने में ठीक जान पड़ती हैं। यह कर्म-संन्यास का आदर्श गीता की रचना के काल में कुछ सम्प्रदायों पर विशेष रूप से प्रभाव जमाए हुए था। अर्जुन के मत को परिवर्तित करना गीता का उद्देश्य है। इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि कर्म अच्छा है या कर्म का त्याग। और अन्त में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कर्म अच्छा है। अर्जुन यह घोषणा करता है कि उनकी दुविधाएं समाप्त हो गई हैं और वह लड़ने के लिए दिए गए आदेशों का पालन करेगा। सारे उपदेश में गुरू कृष्ण कर्म की आवश्यकता पर बल देता है।<ref>2, 18, 37; 3, 19; 4, 15; 8, 7; 11, 33; 16, 24; 18, 6, 72</ref> वह अर्जुन की समस्या को हल करने के लिए संसार को ‘भ्रम’ और कर्म को ‘जाल’ कहकर नहीं टाल देता। वह इस संसार में मनुष्य को ऐसा पूर्ण सक्रिय जीवन बिताने का उपदेश देता है, जिसमें उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ हो। इस प्रकार गीता कर्म करने का आदेश है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य को न केवल सामाजिक प्राणी के रूप में, अपितु आध्यात्मिक भवितव्यता वाले एक व्यक्ति के रूप में क्या कुछ करना चाहिए। इसमें संन्यास की भावना के साथ-साथ कर्मकाण्ड की धर्मनिष्ठा वाले उन लोगों के विषय में भी उचित ढंग से चर्चा की गई है, जो इसकी नैतिक संहिता के अन्तर्गत आते हैं।<ref>तुलना कीजिए, महाभारत, शान्तिपर्व, 348, 53: यतीनां चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः।।</ref> सांख्य, जो गीता में ज्ञान का ही दूसरा नाम है, हमें कर्म का त्याग करने को कहता है। एक सुविदित दृष्टिकोण यह है कि सब उत्पन्न प्राणी कर्म द्वारा बन्धन में फंसते हैं और ज्ञान द्वारा उनका उद्धार होता है।<ref>कर्मणा बध्यते जन्तुः विद्यया तु प्रमुच्यते। --महाभारत, शान्तिपर्व, 240, 7</ref> प्रत्येक कार्य, चाहे वह भला हो या बुरा, अपना स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न करता है और उसके कारण संसार में शरीर धारण करना पड़ता है और वह मुक्ति में बाधा है। प्रत्येक कर्म कर्ता (करने वाले) के अहंकार और पृथक्ता की भावना को पुष्ट करता है और एक नई कार्य-परम्परा को चला देता है। इसलिए यह युक्ति प्रस्तुत की गई कि मनुष्यों को सब कर्मो को त्यागकर संन्यासी बन जाना चाहिए। | किसी ग्रन्थ के प्रयोजन का निर्धारण करते हुए हमें उस प्रश्न को देखना चाहिए, जिसे लेकर वह प्रारम्भ होता है (उपक्रम), और उस निष्कर्ष को देखना चाहिए, जिसके साथ वह समाप्त होता है (उपसंहार)। गीता एक समस्या को लेकर प्रारम्भ होती है। अर्जुन युद्ध करने से इनकार कर देता है और कठिनाइयां उपस्थित करता है। वह कर्म से दूर रहने और संसार को त्यागने के लिए युक्तियां प्रस्तुत करता है, जो सुनने में ठीक जान पड़ती हैं। यह कर्म-संन्यास का आदर्श गीता की रचना के काल में कुछ सम्प्रदायों पर विशेष रूप से प्रभाव जमाए हुए था। अर्जुन के मत को परिवर्तित करना गीता का उद्देश्य है। इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि कर्म अच्छा है या कर्म का त्याग। और अन्त में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कर्म अच्छा है। अर्जुन यह घोषणा करता है कि उनकी दुविधाएं समाप्त हो गई हैं और वह लड़ने के लिए दिए गए आदेशों का पालन करेगा। सारे उपदेश में गुरू कृष्ण कर्म की आवश्यकता पर बल देता है।<ref>2, 18, 37; 3, 19; 4, 15; 8, 7; 11, 33; 16, 24; 18, 6, 72</ref> वह अर्जुन की समस्या को हल करने के लिए संसार को ‘भ्रम’ और कर्म को ‘जाल’ कहकर नहीं टाल देता। वह इस संसार में मनुष्य को ऐसा पूर्ण सक्रिय जीवन बिताने का उपदेश देता है, जिसमें उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ हो। इस प्रकार गीता कर्म करने का आदेश है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य को न केवल सामाजिक प्राणी के रूप में, अपितु आध्यात्मिक भवितव्यता वाले एक व्यक्ति के रूप में क्या कुछ करना चाहिए। इसमें संन्यास की भावना के साथ-साथ कर्मकाण्ड की धर्मनिष्ठा वाले उन लोगों के विषय में भी उचित ढंग से चर्चा की गई है, जो इसकी नैतिक संहिता के अन्तर्गत आते हैं।<ref>तुलना कीजिए, महाभारत, शान्तिपर्व, 348, 53: यतीनां चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः।।</ref> सांख्य, जो गीता में ज्ञान का ही दूसरा नाम है, हमें कर्म का त्याग करने को कहता है। एक सुविदित दृष्टिकोण यह है कि सब उत्पन्न प्राणी कर्म द्वारा बन्धन में फंसते हैं और ज्ञान द्वारा उनका उद्धार होता है।<ref>कर्मणा बध्यते जन्तुः विद्यया तु प्रमुच्यते। --महाभारत, शान्तिपर्व, 240, 7</ref> प्रत्येक कार्य, चाहे वह भला हो या बुरा, अपना स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न करता है और उसके कारण संसार में शरीर धारण करना पड़ता है और वह मुक्ति में बाधा है। प्रत्येक कर्म कर्ता (करने वाले) के अहंकार और पृथक्ता की भावना को पुष्ट करता है और एक नई कार्य-परम्परा को चला देता है। इसलिए यह युक्ति प्रस्तुत की गई कि मनुष्यों को सब कर्मो को त्यागकर संन्यासी बन जाना चाहिए। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१०:४६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
किसी ग्रन्थ के प्रयोजन का निर्धारण करते हुए हमें उस प्रश्न को देखना चाहिए, जिसे लेकर वह प्रारम्भ होता है (उपक्रम), और उस निष्कर्ष को देखना चाहिए, जिसके साथ वह समाप्त होता है (उपसंहार)। गीता एक समस्या को लेकर प्रारम्भ होती है। अर्जुन युद्ध करने से इनकार कर देता है और कठिनाइयां उपस्थित करता है। वह कर्म से दूर रहने और संसार को त्यागने के लिए युक्तियां प्रस्तुत करता है, जो सुनने में ठीक जान पड़ती हैं। यह कर्म-संन्यास का आदर्श गीता की रचना के काल में कुछ सम्प्रदायों पर विशेष रूप से प्रभाव जमाए हुए था। अर्जुन के मत को परिवर्तित करना गीता का उद्देश्य है। इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि कर्म अच्छा है या कर्म का त्याग। और अन्त में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कर्म अच्छा है। अर्जुन यह घोषणा करता है कि उनकी दुविधाएं समाप्त हो गई हैं और वह लड़ने के लिए दिए गए आदेशों का पालन करेगा। सारे उपदेश में गुरू कृष्ण कर्म की आवश्यकता पर बल देता है।[१] वह अर्जुन की समस्या को हल करने के लिए संसार को ‘भ्रम’ और कर्म को ‘जाल’ कहकर नहीं टाल देता। वह इस संसार में मनुष्य को ऐसा पूर्ण सक्रिय जीवन बिताने का उपदेश देता है, जिसमें उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ हो। इस प्रकार गीता कर्म करने का आदेश है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य को न केवल सामाजिक प्राणी के रूप में, अपितु आध्यात्मिक भवितव्यता वाले एक व्यक्ति के रूप में क्या कुछ करना चाहिए। इसमें संन्यास की भावना के साथ-साथ कर्मकाण्ड की धर्मनिष्ठा वाले उन लोगों के विषय में भी उचित ढंग से चर्चा की गई है, जो इसकी नैतिक संहिता के अन्तर्गत आते हैं।[२] सांख्य, जो गीता में ज्ञान का ही दूसरा नाम है, हमें कर्म का त्याग करने को कहता है। एक सुविदित दृष्टिकोण यह है कि सब उत्पन्न प्राणी कर्म द्वारा बन्धन में फंसते हैं और ज्ञान द्वारा उनका उद्धार होता है।[३] प्रत्येक कार्य, चाहे वह भला हो या बुरा, अपना स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न करता है और उसके कारण संसार में शरीर धारण करना पड़ता है और वह मुक्ति में बाधा है। प्रत्येक कर्म कर्ता (करने वाले) के अहंकार और पृथक्ता की भावना को पुष्ट करता है और एक नई कार्य-परम्परा को चला देता है। इसलिए यह युक्ति प्रस्तुत की गई कि मनुष्यों को सब कर्मो को त्यागकर संन्यासी बन जाना चाहिए।
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