"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 223": अवतरणों में अंतर
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यद्यपि अपनी सर्वव्यापी सत्ता द्वारा प्रकृति के कर्मो को सहारा देती है उन्हें अनुमति देती है, अर्थात् यद्यपि यह प्रभु हैं, फिर भी यह कर्म या कर्तृत्व या कर्म - फलसंयोग का सृजन नहीं करती , बल्कि क्षर - भाव में प्रकृति के द्वारा होने वाले इन सब कर्मो को केवल देखती रहती है;<ref>न कर्तृव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु पवर्तते।।</ref> इस जन्म के अंदर आये हुए किसी भी प्राणी के पाप और पुण्य को अपना मानकर उन्हें अपने सिर पर नहीं लेती;<ref>5.15</ref> यह अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि दिव्य स्थिति में बनी रहती है। अज्ञान से विमूढ़ अहंकार ही इन सब चीजों को अपनी मान लेता है, क्योंकि यह कर्तापन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और अपने को उसी रूप् में देखना पसंद करता है, न कि अपने असली रूप में जिसमें यह किसी महत्तर शक्ति का यंत्रमात्र है।<ref>5.15</ref> निर्गुण नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति में लौटकर जीव महत्तर आत्म - ज्ञान को फिर से पा जाता है और प्रकृति के कर्म - बंधन से मुक्त हो जाता है , तब प्रकृति के गुण उसे स्पर्श नहीं करते , वह उसके शुभाशुभ और सुख - दुःख के बाह्म रूपों से अलिप्त रहता है। प्राकृत सत्ता, मन - प्राण - शरीर अब भी रहते हैं, प्रकृति अब भी कर्म करती है; पर आंतरिक सत्ता अपने - आपको इनके साथ तदाकार नहीं करती , न यह उस समय सुखी या दुःखी ही होती है जब कि प्राकृत सत्ता में गुणों की क्रिया हो रही होती है । अब वह जीव स्थिर, मुक्त, सर्वसाक्षी अक्षर ब्रह्म हो जाता है।<br /> | यद्यपि अपनी सर्वव्यापी सत्ता द्वारा प्रकृति के कर्मो को सहारा देती है उन्हें अनुमति देती है, अर्थात् यद्यपि यह प्रभु हैं, फिर भी यह कर्म या कर्तृत्व या कर्म - फलसंयोग का सृजन नहीं करती , बल्कि क्षर - भाव में प्रकृति के द्वारा होने वाले इन सब कर्मो को केवल देखती रहती है;<ref>न कर्तृव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु पवर्तते।।</ref> इस जन्म के अंदर आये हुए किसी भी प्राणी के पाप और पुण्य को अपना मानकर उन्हें अपने सिर पर नहीं लेती;<ref>5.15</ref> यह अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि दिव्य स्थिति में बनी रहती है। अज्ञान से विमूढ़ अहंकार ही इन सब चीजों को अपनी मान लेता है, क्योंकि यह कर्तापन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और अपने को उसी रूप् में देखना पसंद करता है, न कि अपने असली रूप में जिसमें यह किसी महत्तर शक्ति का यंत्रमात्र है।<ref>5.15</ref> निर्गुण नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति में लौटकर जीव महत्तर आत्म - ज्ञान को फिर से पा जाता है और प्रकृति के कर्म - बंधन से मुक्त हो जाता है , तब प्रकृति के गुण उसे स्पर्श नहीं करते , वह उसके शुभाशुभ और सुख - दुःख के बाह्म रूपों से अलिप्त रहता है। प्राकृत सत्ता, मन - प्राण - शरीर अब भी रहते हैं, प्रकृति अब भी कर्म करती है; पर आंतरिक सत्ता अपने - आपको इनके साथ तदाकार नहीं करती , न यह उस समय सुखी या दुःखी ही होती है जब कि प्राकृत सत्ता में गुणों की क्रिया हो रही होती है । अब वह जीव स्थिर, मुक्त, सर्वसाक्षी अक्षर ब्रह्म हो जाता है।<br /> | ||
क्या यही परम पद , परम प्राप्तव्य, उत्तम रहस्य है? नहीं, यह नहीं हो सकता , क्योंकि यह मिश्रित या विभक्त अवस्था है, पूर्ण समन्वित पद नहीं; यह द्विविध सत्ता है, एकीभूत स्वरूप नहीं, यहां आत्मा में तो मुक्त है पर प्रकृति में अपूर्णता है। यह केवल एक अवस्था हो सकती है। तब इसके परे क्या है? एक समाधान उन संन्यासवादियों का है जो प्रकृति का , कर्म का सर्वथा त्याग कर देते हैं, कम - से - कम कर्म का यथासंभव त्याग कर देते हैं ताकि विशुद्ध अविभक्त मुक्ति - स्थिति प्राप्त हो; किंतु गीता इस समाधन को स्वीकार तो करती है पर इसे उत्तम नही मानती । गीता भी कर्मो के संन्यास पर जोर देती है पार यह ब्रह्म को आंतरिक अर्पण है। क्षर भाव में बह्म प्रकृति के कर्म को पूरा - पूरा सहारा देता है , और अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी उससे अलग रहता है, अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है; अक्षर ब्रह्म के साथ युक्त व्यष्टि - पुरूष मुक्त और प्रकृति से अलग रहता है, फिर भी क्षर में स्थित ब्रह्म के साथ युक्त रहकर वह कर्म को सहारा देता है , पर उससे लिप्त नहीं होता। यह द्विविध भाव उत्तम प्रकार से तब क्रियान्वित होता है जब व्यक्ति यह देख लेता है कि ये दोनों एक पुरूषोत्तम के ही दो पहलू हैं। | क्या यही परम पद , परम प्राप्तव्य, उत्तम रहस्य है? नहीं, यह नहीं हो सकता , क्योंकि यह मिश्रित या विभक्त अवस्था है, पूर्ण समन्वित पद नहीं; यह द्विविध सत्ता है, एकीभूत स्वरूप नहीं, यहां आत्मा में तो मुक्त है पर प्रकृति में अपूर्णता है। यह केवल एक अवस्था हो सकती है। तब इसके परे क्या है? एक समाधान उन संन्यासवादियों का है जो प्रकृति का , कर्म का सर्वथा त्याग कर देते हैं, कम - से - कम कर्म का यथासंभव त्याग कर देते हैं ताकि विशुद्ध अविभक्त मुक्ति - स्थिति प्राप्त हो; किंतु गीता इस समाधन को स्वीकार तो करती है पर इसे उत्तम नही मानती । गीता भी कर्मो के संन्यास पर जोर देती है पार यह ब्रह्म को आंतरिक अर्पण है। क्षर भाव में बह्म प्रकृति के कर्म को पूरा - पूरा सहारा देता है , और अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी उससे अलग रहता है, अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है; अक्षर ब्रह्म के साथ युक्त व्यष्टि - पुरूष मुक्त और प्रकृति से अलग रहता है, फिर भी क्षर में स्थित ब्रह्म के साथ युक्त रहकर वह कर्म को सहारा देता है , पर उससे लिप्त नहीं होता। यह द्विविध भाव उत्तम प्रकार से तब क्रियान्वित होता है जब व्यक्ति यह देख लेता है कि ये दोनों एक पुरूषोत्तम के ही दो पहलू हैं। | ||
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०४:१९, २१ सितम्बर २०१५ का अवतरण
यद्यपि अपनी सर्वव्यापी सत्ता द्वारा प्रकृति के कर्मो को सहारा देती है उन्हें अनुमति देती है, अर्थात् यद्यपि यह प्रभु हैं, फिर भी यह कर्म या कर्तृत्व या कर्म - फलसंयोग का सृजन नहीं करती , बल्कि क्षर - भाव में प्रकृति के द्वारा होने वाले इन सब कर्मो को केवल देखती रहती है;[१] इस जन्म के अंदर आये हुए किसी भी प्राणी के पाप और पुण्य को अपना मानकर उन्हें अपने सिर पर नहीं लेती;[२] यह अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि दिव्य स्थिति में बनी रहती है। अज्ञान से विमूढ़ अहंकार ही इन सब चीजों को अपनी मान लेता है, क्योंकि यह कर्तापन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और अपने को उसी रूप् में देखना पसंद करता है, न कि अपने असली रूप में जिसमें यह किसी महत्तर शक्ति का यंत्रमात्र है।[३] निर्गुण नैव्र्यक्तिक आत्मस्थिति में लौटकर जीव महत्तर आत्म - ज्ञान को फिर से पा जाता है और प्रकृति के कर्म - बंधन से मुक्त हो जाता है , तब प्रकृति के गुण उसे स्पर्श नहीं करते , वह उसके शुभाशुभ और सुख - दुःख के बाह्म रूपों से अलिप्त रहता है। प्राकृत सत्ता, मन - प्राण - शरीर अब भी रहते हैं, प्रकृति अब भी कर्म करती है; पर आंतरिक सत्ता अपने - आपको इनके साथ तदाकार नहीं करती , न यह उस समय सुखी या दुःखी ही होती है जब कि प्राकृत सत्ता में गुणों की क्रिया हो रही होती है । अब वह जीव स्थिर, मुक्त, सर्वसाक्षी अक्षर ब्रह्म हो जाता है।
क्या यही परम पद , परम प्राप्तव्य, उत्तम रहस्य है? नहीं, यह नहीं हो सकता , क्योंकि यह मिश्रित या विभक्त अवस्था है, पूर्ण समन्वित पद नहीं; यह द्विविध सत्ता है, एकीभूत स्वरूप नहीं, यहां आत्मा में तो मुक्त है पर प्रकृति में अपूर्णता है। यह केवल एक अवस्था हो सकती है। तब इसके परे क्या है? एक समाधान उन संन्यासवादियों का है जो प्रकृति का , कर्म का सर्वथा त्याग कर देते हैं, कम - से - कम कर्म का यथासंभव त्याग कर देते हैं ताकि विशुद्ध अविभक्त मुक्ति - स्थिति प्राप्त हो; किंतु गीता इस समाधन को स्वीकार तो करती है पर इसे उत्तम नही मानती । गीता भी कर्मो के संन्यास पर जोर देती है पार यह ब्रह्म को आंतरिक अर्पण है। क्षर भाव में बह्म प्रकृति के कर्म को पूरा - पूरा सहारा देता है , और अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी उससे अलग रहता है, अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है; अक्षर ब्रह्म के साथ युक्त व्यष्टि - पुरूष मुक्त और प्रकृति से अलग रहता है, फिर भी क्षर में स्थित ब्रह्म के साथ युक्त रहकर वह कर्म को सहारा देता है , पर उससे लिप्त नहीं होता। यह द्विविध भाव उत्तम प्रकार से तब क्रियान्वित होता है जब व्यक्ति यह देख लेता है कि ये दोनों एक पुरूषोत्तम के ही दो पहलू हैं।
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