"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 210": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

जीव के इस रूप को प्रकृति अदभुत शक्ति के साथ कार्य करने के लिये विवश तो करती है , पर स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं करने देती , उसे जड़ यंत्रवत् चलाती रहती है। इससे ऊपर के स्तर में उद्भिद् कोटि है, उसमें रजोगुण बाहर निकल पडा़ है, उसके साथ उसकी जीवन - शक्ति है, उसकी स्नायविक प्रतिक्रियाओं की क्षमता है ओर ये प्रतिक्रियाएं वे ही हैं जो हमारे अंदर सुख - दुःख के रूप में प्रकट होती है; पर अभी तक सत्वगुण बिलकुल दबा हुआ है, उसने अभी बाहर निकलकर सचेतन बुद्धि के प्रकाश को नहीं गया है, अब भी यह सब जड़, अवचेतन या अर्द्धचेतन ही है जिसमें रज की अपेक्षा तम की प्रबलता है और रज, तम दोनों मिलकर सत्व को कैद किये हुए हैं।इससे ऊपर के स्तर में , अर्थात् पशुकोटि में, है तो तम की ही प्रबलता और सभी हित ‘‘तामस सर्ग” के अंतर्गत रख सकते हैं, फिर भी यहां तमोगुण के विरूद्ध रजोगुण का पहले की अपेक्षा अधिक जोर है और इसलिये यहां कुछ उन्नत प्रकार की जीवन - शक्ति , इच्छा , उमंग, प्राणवेग और सुख - दुःख भी होते हैं; सत्वगुण यहां प्रकट तो हो रहा है पर अभीतक निम्न क्रिया के अधीन है, फिर भी उसने पशु - योनि में सचेतन मन के प्रथम प्रकाश , यांत्रिक अहंबोध, सचेतन स्मृति, एक प्रकार की चिंतनशक्ति, विशेषतः पशुसुलभ सहजप्रेरणा और सहजस्फुरण के चमत्कार का योगदान दिया है।
परंतु यहां तक भी बुद्धि ने चेतना का पूर्ण विकास नहीं किया है; अतएव पशुओं को उनके कर्मो का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । परमाणु को उसकी अंध गति के लिये, आग को जलाने और खाक कर देने के लिये या आंधी - तूफान को बरबादी के लिये जितना दोष दिया जा सकता है शेर को उससे अधिक दोष प्राणियों को मारने और खाने के लिये नहीं दिया जा सकता । यदि शेर प्रश्न का जवाब दे सकता तो मनुष्य की तरह यही कहता कि मैं जो कुछ करता हूं अपनी स्वाधीन इच्छा से करता हूं; वह कर्तापन का भाव रखना चाहता और कहता, ‘‘ मैं मारता हूं मैं खाता हूं। पर हम स्पष्ट देख सकते हैं कि मारने - खाने की क्रिया करने वाला शेर नहीं बल्कि उसके अंदर की की प्रकृति है , जो मारती और खाती है; और यदि कभी शेर मारने और खाने से और गुण का कर्म है जिसे तमोगुण कहते हैं। जैसे पशु के अंदर की प्रकृति ने ही मारने की क्रिया की, वैसे ही स्वयं प्रकृति ने मारने से रूकने की क्रिया भी की। उसके अंदर आत्मा किसी भी रूप में हो पर स्वयं प्रकृति के कर्म का केवल निष्क्रिय अनुमंता ही, वह प्रकृति के कामक्रोध के वेग और कर्म में उतना ही निष्क्रिय है जितना उसके आलस्य या अकर्म में। परमाणु के समान ही पशु भी अपनी प्रकृति की यांत्रिकता के अनुसार चलता है, और किसी तरह नहीं, जैसे कोई ‘‘ माया के द्वारा यंत्र पर चढ़ाया हुआ हो।” खैर, कम - से - कम मनुष्य में तो अन्य प्रकार की क्रिया है, उसमें स्वतंत्र आत्मा , स्वाधीन इच्छा , दायित्वबोध है,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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