"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 161 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर

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संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर और भीमसेन ने द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया। यह देख द्रोणाचार्य की सेना से घिरे हुए राजा दुर्योधन ने भी रणभूमि में पाण्डवों पर आक्रमण किया। महाराज! फिर तो कायरों का भय बढ़ाने वाला घोर युद्ध होने लगा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने अम्बष्ठ, मालव, वंग, शिबि तथा त्रिगर्तदेश के योद्धाओं को मृत्यु के लोग में भेज दिया। अभीषाह तथा शूरसेन देश के रणदुर्मद क्षत्रियों को भी काट-काटकर भीमसेन ने वहाँ की भूमि को खून से कीचड़मयी बना दिया। राजन्! इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा यौधेय, पर्वतीय, मद्रक तथा मालव योद्धाओं को भी मृत्यु के लोक का पथिक बना दिया। अनायास ही दूर तक जाने वाले उनके नाराचों की गहरी चोट खाकर दो दाँतों वाले हाथी दो शिखरों वाले पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। हाथियों के शुण्डदण्ड कटकर इधर-उधर तड़पते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सर्प चल रहे हों। उनके द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी। प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों से व्याप्त हुए द्युलोक की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार इधर-उधर फेंके पड़े हुए राजाओं के सुवर्णचित्रित छत्रों द्वारा उस रणभूमि की भी शोभा हो रही थी। लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य के रथ के समीप ‘मार उालो, निर्भय होकर प्रहार करो, बाणों से बींध डालो, टुकडे़-टुकड़े कर दो’ इत्यादि भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे दुर्जय महावायु मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र के द्वारा युद्ध में समस्त शत्रुओं को तहस-नहस कर डाला। द्रोणाचार्य की मार खाकर भीमसेन और महात्मा अर्जुन के देखते-देखते पान्चाल सैनिक भय के मारे भागने लगे।। तत्पश्चात् अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसमूह से युक्त भारी सेना साथ लेकर सहसा द्रोणाचार्य की ओर लौट पडे़।। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना पर दक्षिण पार्श्व से ओर भीमसेन ने बायें पार्श्व से अपने बाणसमूहों की भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाराज! उस समय महातेजस्वी पान्चालों, संजयों, मत्स्यों तथा सोमकों ने भी उन्हीं दोनों के मार्ग का अनुसरण किया। राजन्! इसी प्रकार प्रहार करने में कुशल आपके पुत्र के श्रेष्ठ रथी भी विशाल सेना के साथ द्रोणाचार्य के रथ के समीप जा पहुँचे। उस समय किरीटधारी अर्जुन के द्वारा मारी जाती हुई कौरवी सेना अन्धकार और निद्रा दोनों से पीडि़त हो पुनः भागने लगी। महाराज! द्रोणाचार्य ने तथा स्वयं आपके पुत्र ने भी उन्हें बहुतेरा रोका, तथापि उस समय आपके सैनिक रोके न जा सके। पाण्डु पुत्र अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होती हुई वह विशाल सेना उस तिमिराच्छन्न जगत् में सब ओर भागने लगी।। महाराज! कुछ नरेश, जो सैकड़ों की संख्या में थे, अपने वाहनों को वहीं छोड़कर भय से व्याकुल हो सब ओर भाग गये।।
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर और भीमसेन ने द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया। यह देख द्रोणाचार्य की सेना से घिरे हुए राजा दुर्योधन ने भी रणभूमि में पाण्डवों पर आक्रमण किया। महाराज! फिर तो कायरों का भय बढ़ाने वाला घोर युद्ध होने लगा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने अम्बष्ठ, मालव, वंग, शिबि तथा त्रिगर्तदेश के योद्धाओं को मृत्यु के लोग में भेज दिया। अभीषाह तथा शूरसेन देश के रणदुर्मद क्षत्रियों को भी काट-काटकर भीमसेन ने वहाँ की भूमि को खून से कीचड़मयी बना दिया। राजन्! इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा यौधेय, पर्वतीय, मद्रक तथा मालव योद्धाओं को भी मृत्यु के लोक का पथिक बना दिया। अनायास ही दूर तक जाने वाले उनके नाराचों की गहरी चोट खाकर दो दाँतों वाले हाथी दो शिखरों वाले पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। हाथियों के शुण्डदण्ड कटकर इधर-उधर तड़पते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सर्प चल रहे हों। उनके द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी। प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों से व्याप्त हुए द्युलोक की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार इधर-उधर फेंके पड़े हुए राजाओं के सुवर्णचित्रित छत्रों द्वारा उस रणभूमि की भी शोभा हो रही थी। लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य के रथ के समीप ‘मार उालो, निर्भय होकर प्रहार करो, बाणों से बींध डालो, टुकडे़-टुकड़े कर दो’ इत्यादि भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे दुर्जय महावायु मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र के द्वारा युद्ध में समस्त शत्रुओं को तहस-नहस कर डाला। द्रोणाचार्य की मार खाकर भीमसेन और महात्मा अर्जुन के देखते-देखते पान्चाल सैनिक भय के मारे भागने लगे।। तत्पश्चात् अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसमूह से युक्त भारी सेना साथ लेकर सहसा द्रोणाचार्य की ओर लौट पडे़।। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना पर दक्षिण पार्श्व से ओर भीमसेन ने बायें पार्श्व से अपने बाणसमूहों की भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाराज! उस समय महातेजस्वी पान्चालों, संजयों, मत्स्यों तथा सोमकों ने भी उन्हीं दोनों के मार्ग का अनुसरण किया। राजन्! इसी प्रकार प्रहार करने में कुशल आपके पुत्र के श्रेष्ठ रथी भी विशाल सेना के साथ द्रोणाचार्य के रथ के समीप जा पहुँचे। उस समय किरीटधारी अर्जुन के द्वारा मारी जाती हुई कौरवी सेना अन्धकार और निद्रा दोनों से पीडि़त हो पुनः भागने लगी। महाराज! द्रोणाचार्य ने तथा स्वयं आपके पुत्र ने भी उन्हें बहुतेरा रोका, तथापि उस समय आपके सैनिक रोके न जा सके। पाण्डु पुत्र अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होती हुई वह विशाल सेना उस तिमिराच्छन्न जगत् में सब ओर भागने लगी।। महाराज! कुछ नरेश, जो सैकड़ों की संख्या में थे, अपने वाहनों को वहीं छोड़कर भय से व्याकुल हो सब ओर भाग गये।।


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर संकुलयुद्ध विषयक एक सौ इकसठवाँअध्‍याय पूरा हुआ।</div>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर संकुलयुद्ध विषयक एक सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>  


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 160 श्लोक 41-60|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 162 श्लोक 1-21}}
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०८:२१, ६ जुलाई २०१५ का अवतरण

एकषष्ट्यधिकशततम (161) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण ओर कौरव सेना का पलायन

संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर और भीमसेन ने द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया। यह देख द्रोणाचार्य की सेना से घिरे हुए राजा दुर्योधन ने भी रणभूमि में पाण्डवों पर आक्रमण किया। महाराज! फिर तो कायरों का भय बढ़ाने वाला घोर युद्ध होने लगा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने अम्बष्ठ, मालव, वंग, शिबि तथा त्रिगर्तदेश के योद्धाओं को मृत्यु के लोग में भेज दिया। अभीषाह तथा शूरसेन देश के रणदुर्मद क्षत्रियों को भी काट-काटकर भीमसेन ने वहाँ की भूमि को खून से कीचड़मयी बना दिया। राजन्! इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने अपने पैने बाणों द्वारा यौधेय, पर्वतीय, मद्रक तथा मालव योद्धाओं को भी मृत्यु के लोक का पथिक बना दिया। अनायास ही दूर तक जाने वाले उनके नाराचों की गहरी चोट खाकर दो दाँतों वाले हाथी दो शिखरों वाले पर्वतों के समान पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। हाथियों के शुण्डदण्ड कटकर इधर-उधर तड़पते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सर्प चल रहे हों। उनके द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी। प्रलयकाल में सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों से व्याप्त हुए द्युलोक की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार इधर-उधर फेंके पड़े हुए राजाओं के सुवर्णचित्रित छत्रों द्वारा उस रणभूमि की भी शोभा हो रही थी। लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य के रथ के समीप ‘मार उालो, निर्भय होकर प्रहार करो, बाणों से बींध डालो, टुकडे़-टुकड़े कर दो’ इत्यादि भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे दुर्जय महावायु मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य ने वायव्यास्त्र के द्वारा युद्ध में समस्त शत्रुओं को तहस-नहस कर डाला। द्रोणाचार्य की मार खाकर भीमसेन और महात्मा अर्जुन के देखते-देखते पान्चाल सैनिक भय के मारे भागने लगे।। तत्पश्चात् अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसमूह से युक्त भारी सेना साथ लेकर सहसा द्रोणाचार्य की ओर लौट पडे़।। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की सेना पर दक्षिण पार्श्व से ओर भीमसेन ने बायें पार्श्व से अपने बाणसमूहों की भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाराज! उस समय महातेजस्वी पान्चालों, संजयों, मत्स्यों तथा सोमकों ने भी उन्हीं दोनों के मार्ग का अनुसरण किया। राजन्! इसी प्रकार प्रहार करने में कुशल आपके पुत्र के श्रेष्ठ रथी भी विशाल सेना के साथ द्रोणाचार्य के रथ के समीप जा पहुँचे। उस समय किरीटधारी अर्जुन के द्वारा मारी जाती हुई कौरवी सेना अन्धकार और निद्रा दोनों से पीडि़त हो पुनः भागने लगी। महाराज! द्रोणाचार्य ने तथा स्वयं आपके पुत्र ने भी उन्हें बहुतेरा रोका, तथापि उस समय आपके सैनिक रोके न जा सके। पाण्डु पुत्र अर्जुन के बाणों से विदीर्ण होती हुई वह विशाल सेना उस तिमिराच्छन्न जगत् में सब ओर भागने लगी।। महाराज! कुछ नरेश, जो सैकड़ों की संख्या में थे, अपने वाहनों को वहीं छोड़कर भय से व्याकुल हो सब ओर भाग गये।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर संकुलयुद्ध विषयक एक सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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