"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 66-82": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुरशीतितमो अध्याय: श्लोक 66-82 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुरशीतितमो अध्याय: श्लोक 66-82 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
‘प्रभो ! संतान के लिये प्रकट होने वाला जो आपका उत्तम तेज है, उसे आप अपने भीतर ही रोक लीजिये। आप दोनों त्रिलोकी के सारभूत हैं। अतः अपनी संतान के द्वारा सम्पूर्ण जगत को संतप्त कर डालेंगे।' ‘ आप दोनों से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह निश्चय ही देवताओं को पराजित कर देगा। प्रभो। हमारा तो ऐसा विश्वास है कि न तो पृथ्वीदेवी, न आकाश और न स्वर्ग ही आपके तेज को धारण कर सकेगा। ये सब मिलकर भी आपके तेज को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। यह सारा जगत आपके तेज के प्रभाव से भस्म हो जायेगा।‘ अतः भगवन ! हम पर कृपा कीजिये। प्रभो ! सुरश्रेष्ठ। हम यही चाहते हैं कि देवी पार्वती के गर्भ से आपके कोई पुत्र न हो आप धैर्य से ही अपने प्रज्वलित उत्तम तेज को भीतर ही रोक लीजिये।' | |||
‘विप्रर्षे ! देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान वृषभध्वज ने उनसे ‘एवमस्तु’ कह दिया। ‘देवताओं से ऐसा कहकर वृषभवाहन भगवान शंकर ने अपने ‘रेतस’ अथवा वीर्य को ऊपर चढा लिया। तभी से वे ‘ऊध्र्वरेता’ नाम से विख्यात हुए। ‘देवताओं ने मेरी भावी संतान का उच्छेद कर डाला।’ यह सोचकर उस समय देवी रूद्राणी बहुत कुपित हुईं और स्त्री-स्वभाव होने के कारण उन्होंने देवताओं से यह कठोर वचन कहा-‘देवताओं ! मेरे पतिदेव मुझ से संतान उत्पन्न करना चाहते थे, किंतु तुम लोगों ने इन्हें इस कार्य से निवृत कर दिया; इसलिये तुम सभी देवता निर्वंश हो जाओेगे।‘आकाशचारी देवताओं ! आज तुम सब लोगों ने मिलकर मेरी संतति का उच्छेद किया है; अतः तुम सब लोगों के भी संतान नहीं होगी।' भृगुश्रेष्ठ। उस शाप के समय वहां अग्नि देव नहीं थे; अतः उन पर यह शाप लागू नहीं हुआ। अन्य सब देवता देवी के शाप से संतानहीन हो गये। 'रूद्रदेव ने उस समय अपने अनुपम तेज (वीर्य) को यद्यपि रोक लिया था’ तो भी किंचित स्खिलित होकर वहीं पृथ्वी पर गिर पड़ा। वह अदभुत तेज अग्नि में पड़कर बढने और ऊपर को उठने लगा। तेज से संयुक्त हुआ वह तेज एक स्वयंम्भू पुरूष के रूप में अभिव्यक्त होने लगा। इसी समय तारक नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसने इन्द्र आदि देवताओं का अत्यन्त संतप्त कर दिया था। आदित्य, वषु, रूद्र, मरूदगण, अश्विनीकुमार तथा साध्य- सभी देवता उस दैत्य के पराक्रम से संत्रस्त हो उठे थे। असुरों ने देवताओं के स्थान, विमान, नगर तथा ऋषियों के आश्रम भी छीन लिये थे। वे सभी देवता और ऋषि दीनचित्त हो अजर-अमर एवं सर्वव्यापी देवता भगवान ब्रम्हा की शरण में गये। | |||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 33-65|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 1-30}} | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 33-65|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 1-30}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१२:१९, ६ जुलाई २०१५ का अवतरण
चतुरशीतितमो (84) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
‘प्रभो ! संतान के लिये प्रकट होने वाला जो आपका उत्तम तेज है, उसे आप अपने भीतर ही रोक लीजिये। आप दोनों त्रिलोकी के सारभूत हैं। अतः अपनी संतान के द्वारा सम्पूर्ण जगत को संतप्त कर डालेंगे।' ‘ आप दोनों से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह निश्चय ही देवताओं को पराजित कर देगा। प्रभो। हमारा तो ऐसा विश्वास है कि न तो पृथ्वीदेवी, न आकाश और न स्वर्ग ही आपके तेज को धारण कर सकेगा। ये सब मिलकर भी आपके तेज को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। यह सारा जगत आपके तेज के प्रभाव से भस्म हो जायेगा।‘ अतः भगवन ! हम पर कृपा कीजिये। प्रभो ! सुरश्रेष्ठ। हम यही चाहते हैं कि देवी पार्वती के गर्भ से आपके कोई पुत्र न हो आप धैर्य से ही अपने प्रज्वलित उत्तम तेज को भीतर ही रोक लीजिये।' ‘विप्रर्षे ! देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान वृषभध्वज ने उनसे ‘एवमस्तु’ कह दिया। ‘देवताओं से ऐसा कहकर वृषभवाहन भगवान शंकर ने अपने ‘रेतस’ अथवा वीर्य को ऊपर चढा लिया। तभी से वे ‘ऊध्र्वरेता’ नाम से विख्यात हुए। ‘देवताओं ने मेरी भावी संतान का उच्छेद कर डाला।’ यह सोचकर उस समय देवी रूद्राणी बहुत कुपित हुईं और स्त्री-स्वभाव होने के कारण उन्होंने देवताओं से यह कठोर वचन कहा-‘देवताओं ! मेरे पतिदेव मुझ से संतान उत्पन्न करना चाहते थे, किंतु तुम लोगों ने इन्हें इस कार्य से निवृत कर दिया; इसलिये तुम सभी देवता निर्वंश हो जाओेगे।‘आकाशचारी देवताओं ! आज तुम सब लोगों ने मिलकर मेरी संतति का उच्छेद किया है; अतः तुम सब लोगों के भी संतान नहीं होगी।' भृगुश्रेष्ठ। उस शाप के समय वहां अग्नि देव नहीं थे; अतः उन पर यह शाप लागू नहीं हुआ। अन्य सब देवता देवी के शाप से संतानहीन हो गये। 'रूद्रदेव ने उस समय अपने अनुपम तेज (वीर्य) को यद्यपि रोक लिया था’ तो भी किंचित स्खिलित होकर वहीं पृथ्वी पर गिर पड़ा। वह अदभुत तेज अग्नि में पड़कर बढने और ऊपर को उठने लगा। तेज से संयुक्त हुआ वह तेज एक स्वयंम्भू पुरूष के रूप में अभिव्यक्त होने लगा। इसी समय तारक नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसने इन्द्र आदि देवताओं का अत्यन्त संतप्त कर दिया था। आदित्य, वषु, रूद्र, मरूदगण, अश्विनीकुमार तथा साध्य- सभी देवता उस दैत्य के पराक्रम से संत्रस्त हो उठे थे। असुरों ने देवताओं के स्थान, विमान, नगर तथा ऋषियों के आश्रम भी छीन लिये थे। वे सभी देवता और ऋषि दीनचित्त हो अजर-अमर एवं सर्वव्यापी देवता भगवान ब्रम्हा की शरण में गये।
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