"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 187 श्लोक 1-18": अवतरणों में अंतर

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==सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
==सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>
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०५:३०, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण

सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन और नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय

संजय कहते हैं- महाराज! वे समस्त योद्धा पूर्ववत् कवच बाँधे हुए ही युद्ध के मुहाने पर प्रातः-संध्या के समय सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य का उपस्थान करने लगे। तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान् सूर्य देव का उदय होने पर जब सम्पूर्ण लोकों में प्रकाश डा गया, तब पुनः युद्ध होने लगा। भरतनन्दन! सूर्योदय से पहले जिन लोगों में द्वन्द्व युद्ध चल रहा था, सूर्योदय के बाद भी पुनः वे ही लोग परस्पर जूझने लगे। रथों से घोड़े, घोड़ों से हाथी, पैदलों से हाथी सवार, घोड़ों से घोड़े तथा पेदलों से पैदल भिड़ गये। भरतश्रेष्ठ! रथों से रथ और हाथियों से हाथी गुँथ जाते थे। इस प्रकार कभी सटकर और कभी विलग होकर वे योद्धा रणभूमि में गिरने लगे। वे सभी रात में युद्ध करके थक गये थे। फिर सवेरे सूर्य की धूप लगने से उनके अंग-अंग में भूख-प्यास व्याप्त हो गयी, जिससे बहुतेरे सैनिक अपनी सुध-बुध खो बैठे। राजन्! भरतश्रेष्ठ! उस समय शंख, भेरी और मृदंगों की ध्वनि, गरजते हुए गजराजों का चीत्कार और फैलाये तथा खींचे गये धनुषों की टंकार इन सबका सम्मिलित शब्द आकाश में गूँज उठा था। दौड़ते हुए पैदलों, गिरते हुए शस्त्रों, हिनहिनाते हुए घोड़ों, लौटते हुए रथों तथा चीखते-चिल्लाते और गरजते हुएशूरवीरों का मिला हुआ महाभयंकर शब्द वहाँ गूँज रहा था। वह बढ़ा हुआ अत्यन्त भयानक शब्द उस समय स्वर्गलोक तक जहा पहुँचा था। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से कटकर छटपटाते हुए योद्धाओं का महान् आर्तनाद धरती पर सुनायी दे रहा था। गिरते और गिराये जाते हुए पैदल, घोड़े, रथ और हाथियों की अत्यन्त दयनीय दशा दिखायी देती थी। उन सभी सेनाओं में बारंबार मुठभेड़ होती थी और उसमें अपने ही पक्ष के लोग अपने ही पक्षवालों को मार डालते थे। शत्रुपक्ष के लोग भी अपने पक्ष के लोगों को मारते थे। शत्रुपक्ष के जो स्वजन थे उनको तथा शत्रुओं को भी शत्रुपक्ष के योद्धा मार डालते थे। जैसे कपड़े धोने के घाटों पर ढेर के ढेर वस्त्र दिखायी देते हैं, उसी प्रकार योद्धाओं और हाथियों पर वीरों की भुजाओं द्वारा छोड़े गये अस्त्र-शस्त्रों की राशियाँ दिखायी देती थीं। शूरवीरों के हाथों में उठकर विपक्षी योद्धाओं के शस्त्रों से टकराये हुए खडंगों का शब्द वैसा ही जान पड़ता था, जैसे धोबियों के पटहों पर पीटे जाने वाले कपड़ों का शब्द होता है। एक ओर धारवाली और दुधारी तलवारों, तोमरों तथा फरसों द्वारा जो अत्यन्त निकट से युद्ध चल रहा था, वह भी बहुत ही क्रूरतापूर्ण एवं भयंकर था। वहाँ युद्ध करने वाले वीरों ने खून की नदी बहा दी, जिसका प्रवाह परलोक की ओर ले जाने वाला थ। वह रक्त की नदी हाथी और घोड़ों की लाशों से प्रकट हुई थी। मनुष्यों के शरीरों को बहाये लिये जाती थी। उसमें शस्त्ररूपी मछलियाँ भरी थीं। मांस और रक्त ही उसकी कीचड़ थे। पीडि़तों के आर्तनाद ही उसकी कलकल ध्वनि थे तथा पताका और शस्त्र उसमें फेन के समान जान पड़ते थे। रात्रि के युद्ध से मोहित, अल्प चेतना वाले, बाणों और शक्तियों से पीड़ित तथा थके-माँदे हाथी एवं घोड़े आदि वाहन अपने सारे अंगों को स्तब्ध करके वहाँ खड़े थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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