"महाभारत वन पर्व अध्याय 298 श्लोक 17-32": अवतरणों में अंतर

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१३:४५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टनवत्यधिकद्विशततम (298) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 17-32 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


दाल्भ्य ने कहा- राजन् जिस प्रकार आप को दृष्टि प्राप्त हो गयी और जिस प्रकार सावित्री का उपवास-व्रत चल रहा था तथा जिस प्रकार वह आज भोजन किये बिना ही पति के साथ गयी है, इन सब बातों पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि सत्यवान् जीवित है। आपस्तम्ब बोले- इस शान्त (एवं प्रसन्न) दिशा में मृग और पक्षी जैसी बोली बोल रहे हैं और आपके द्वारा जिस प्रकार राजोचित धर्म का अनुष्ठान हो रहा है, उसके अनुसार यह कहा जा सकता है कि सत्यवान् जीवित है। धौम्य ने कहा- महाराज ! आपका यह पुत्र जिस प्रकार समस्त सद्गुणों से सम्पन्न, जनप्रिय तथा चिरजीवी पुरुषों के लक्ष्णों से युक्त है, उसके अनुसार यही मानना चाहिये कि सत्यवान् जीवित है। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार सत्यवादी एवं तपस्वी मुनियों ने जब राजा द्युमतसेन को पूर्णतः आश्वासन दिया, तब उनउ सबका समादर करते हुए उनकी बात मानकर वे स्थिर हो गये। तदनन्तर दो ही घड़ी में सावित्री अपने पति सत्यवान् के साथ रात में वहाँ आयी और बड़े हर्ष के साथ उसने आश्रम में प्रवेश किया। तब ब्राह्मणों ने कहा- महाराज ! पुत्र के साथ आपका मिलन हुआ है और आपको नेत्र भी प्राप्त हो गये, इस अवस्था में आपको देखकर हम सब लोग आपका अभ्युदय मान रहे हैं। बड़े सौभाग्य की बात है कि आपको पुत्र का समागम प्राप्त हुआ, बहू सावित्री का दर्शन हुआ और अपने खोये हुए नेत्र पुनः मिल गये। इन तीनों बातों से आपका अभ्युदय सूचित होता है। हम सब लोगों ने जो बात कही है, वह ज्यों-की-त्यों सत्य निकली, इसमें संशय नहीं है। आगे भी शीघ्र ही आपकी बारंबार समृद्धि होने वाली है।। युधिष्ठिर ! तदनन्तर सभी ब्राह्मण वहाँ आग जलाकर राजा द्युमत्सेन के पास बैठ गये। शैव्या, सत्यवान् तथा सावित्री- ये तीनों भी एक ओर खड़े थे, जो उन सब महात्माओं की आज्ञा पाकर शोकरहित हो बैठे थे। पार्थ ! तत्पश्चात् राजा के साथ बैइे हुए वे सभी वनवासी कौतूहलवश राजकुमार सत्यवान् से पूछने लगे। ऋषि बोले- राजकुमार ! तुम अपनी पत्नी के साथ पहले ही क्यों नहीं चले आये ? क्यों इतनी रात बिताकर आये ? तुम्हारे सामने कौन-सी अड़चन आ गयी थी।। राजपुत्र ! तुमने आने में विलम्ब करके अपने माता-पिता तथा हम लोगों को भी भारी संताप में डाल दिया था। तुमने ऐसा क्यों किया ? यह हम नहीं जान पाते हैं, अतः सब बातें स्पष्ट रूप से बताओ। सत्यवान् बोले- मैं पिता की आज्ञा पाकर सावित्री के साथ वन में गया। फिर वन में लकडि़यों को चीरते समय मेरे सिर में बड़े जोर से दर्द होने लगा। मैं समझता हूँ कि मैं वेदना से व्याकुल होकर देर तक सोता रह गया। उतने समय तक मैं उसके पहले कभी नहीं सोया था। नींद खेलने पर मैं इतनी रात के बाद भी इसलिये चला आया कि आप सब लोगों को मेरे लिये चिन्तित न होना पड़े। इस विलम्ब में और कोई कारण नहीं है।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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