"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-43": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-43 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-43 का हिन्दी अनुवाद</div>


श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! कुरूक्षेत्र, गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ, देवताओं तथा ऋषियों द्वारा सेवित स्थान एवं श्रेष्ठ पर्वत- ये सब-के-सब तीर्थ हैं। जहाँ देश के सभी भागों में पूजित श्रेष्ठ पुरूष दान ग्रहण करना चाहता हो, वहाँ दिये हुए दान का महान् फल होता है। शरद् और वसन्त कासमय, पवित्र मास, पक्षों में शुक्लपक्ष, पर्वों में पौर्णमासी, मघानक्षत्रयुक्त निर्मल दिवस, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण- इन सबको अत्यन्त शुभकारक काल समझो। दाता हो, देने की वस्तु हो, दान लेने वाला पात्र हो, उपक्रमयुक्त क्रिया हो और उत्तम देश-काल हो- इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है। जब कभी एक समय इन सबका संयोग जुट जाय तभी दान देना महान् फलदायक होता है। इन छः गुणों से युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होने पर भी अनन्त होकर निर्दोष दाता को स्वर्गलोक में पहुँचा देता है। उमा ने पूछा- प्रभो! इन गुणों से युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागो! मनुष्यों के भाव-दोष से ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्म का सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चाताप करने लगता है अथवा भरी सभा में उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है। पुण्य की अभिलाषा रखने वाले दाताओं को चाहिये कि वे इन दोषों को त्याग दें। यह दानसम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरूषों ने सदा इसका आचरण किया है। दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये दान किया जाता है। गृहस्थों पर तो दूसरे प्राणियों का ऋण होता है, जो दान करने से उतरता है, ऐसा मन में समझकर विद्वान् पुरूष सदा दान करता रहे। इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान् होता है। सर्वसाधारण द्रव्य का भी इसी तरह दान करने से महान् फल की प्राप्ति होती है। उमा ने पूछा- भगवन्! मनुष्यों को धर्म के उद्देश्य से किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! निरन्तर धर्म कार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवासस्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक- ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करने की वस्तुएँ बतायी गयी हैं। अन्न मनुष्यों का प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करने वाला होता है। अतः मनुष्य विशेष रूप से अन्न का दान करना चाहता है। अनुरूप ब्राह्मण को जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोक में अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधि की स्थापना करता है। रास्ते का थका-माँदा अतिथि यदि घर पर आ जाय तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे, क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवांछित फल देने वाला यज्ञ है। जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने से किसान, चाण्डाल और शूद्रों को भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता।  
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! कुरूक्षेत्र, गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ, देवताओं तथा ऋषियों द्वारा सेवित स्थान एवं श्रेष्ठ पर्वत- ये सब-के-सब तीर्थ हैं। जहाँ देश के सभी भागों में पूजित श्रेष्ठ पुरूष दान ग्रहण करना चाहता हो, वहाँ दिये हुए दान का महान् फल होता है। शरद् और वसन्त कासमय, पवित्र मास, पक्षों में शुक्लपक्ष, पर्वों में पौर्णमासी, मघानक्षत्रयुक्त निर्मल दिवस, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण- इन सबको अत्यन्त शुभकारक काल समझो। दाता हो, देने की वस्तु हो, दान लेने वाला पात्र हो, उपक्रमयुक्त क्रिया हो और उत्तम देश-काल हो- इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है। जब कभी एक समय इन सबका संयोग जुट जाय तभी दान देना महान् फलदायक होता है। इन छः गुणों से युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होने पर भी अनन्त होकर निर्दोष दाता को स्वर्गलोक में पहुँचा देता है। उमा ने पूछा- प्रभो! इन गुणों से युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागो! मनुष्यों के भाव-दोष से ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्म का सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चाताप करने लगता है अथवा भरी सभा में उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है। पुण्य की अभिलाषा रखने वाले दाताओं को चाहिये कि वे इन दोषों को त्याग दें। यह दानसम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरूषों ने सदा इसका आचरण किया है। दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये दान किया जाता है। गृहस्थों पर तो दूसरे प्राणियों का ऋण होता है, जो दान करने से उतरता है, ऐसा मन में समझकर विद्वान् पुरूष सदा दान करता रहे। इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान् होता है। सर्वसाधारण द्रव्य का भी इसी तरह दान करने से महान् फल की प्राप्ति होती है। उमा ने पूछा- भगवन्! मनुष्यों को धर्म के उद्देश्य से किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! निरन्तर धर्म कार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवासस्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक- ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करने की वस्तुएँ बतायी गयी हैं। अन्न मनुष्यों का प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करने वाला होता है। अतः मनुष्य विशेष रूप से अन्न का दान करना चाहता है। अनुरूप ब्राह्मण को जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोक में अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधि की स्थापना करता है। रास्ते का थका-माँदा अतिथि यदि घर पर आ जाय तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे, क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवांछित फल देने वाला यज्ञ है। जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने से किसान, चाण्डाल और शूद्रों को भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता। अतः ईर्ष्या छोड़कर सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा अन्नदान करना चाहिये। अनिन्दिते! अन्नदान से जो लोक प्राप्त होते हैं उनका वर्णन करता हूँ। उन महामना दानी पुरूषों को मिले हुए भवन देवलोक में प्रकाशित होते हैं। उन भव्य भवनों में सैकड़ों तल्ले हैं। उनके भीतर जल और वन हैं।
 
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११:०६, २१ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-43 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! कुरूक्षेत्र, गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ, देवताओं तथा ऋषियों द्वारा सेवित स्थान एवं श्रेष्ठ पर्वत- ये सब-के-सब तीर्थ हैं। जहाँ देश के सभी भागों में पूजित श्रेष्ठ पुरूष दान ग्रहण करना चाहता हो, वहाँ दिये हुए दान का महान् फल होता है। शरद् और वसन्त कासमय, पवित्र मास, पक्षों में शुक्लपक्ष, पर्वों में पौर्णमासी, मघानक्षत्रयुक्त निर्मल दिवस, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण- इन सबको अत्यन्त शुभकारक काल समझो। दाता हो, देने की वस्तु हो, दान लेने वाला पात्र हो, उपक्रमयुक्त क्रिया हो और उत्तम देश-काल हो- इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है। जब कभी एक समय इन सबका संयोग जुट जाय तभी दान देना महान् फलदायक होता है। इन छः गुणों से युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होने पर भी अनन्त होकर निर्दोष दाता को स्वर्गलोक में पहुँचा देता है। उमा ने पूछा- प्रभो! इन गुणों से युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागो! मनुष्यों के भाव-दोष से ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्म का सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चाताप करने लगता है अथवा भरी सभा में उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है। पुण्य की अभिलाषा रखने वाले दाताओं को चाहिये कि वे इन दोषों को त्याग दें। यह दानसम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरूषों ने सदा इसका आचरण किया है। दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये दान किया जाता है। गृहस्थों पर तो दूसरे प्राणियों का ऋण होता है, जो दान करने से उतरता है, ऐसा मन में समझकर विद्वान् पुरूष सदा दान करता रहे। इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान् होता है। सर्वसाधारण द्रव्य का भी इसी तरह दान करने से महान् फल की प्राप्ति होती है। उमा ने पूछा- भगवन्! मनुष्यों को धर्म के उद्देश्य से किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! निरन्तर धर्म कार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवासस्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक- ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करने की वस्तुएँ बतायी गयी हैं। अन्न मनुष्यों का प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करने वाला होता है। अतः मनुष्य विशेष रूप से अन्न का दान करना चाहता है। अनुरूप ब्राह्मण को जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोक में अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधि की स्थापना करता है। रास्ते का थका-माँदा अतिथि यदि घर पर आ जाय तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे, क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवांछित फल देने वाला यज्ञ है। जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने से किसान, चाण्डाल और शूद्रों को भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता। अतः ईर्ष्या छोड़कर सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा अन्नदान करना चाहिये। अनिन्दिते! अन्नदान से जो लोक प्राप्त होते हैं उनका वर्णन करता हूँ। उन महामना दानी पुरूषों को मिले हुए भवन देवलोक में प्रकाशित होते हैं। उन भव्य भवनों में सैकड़ों तल्ले हैं। उनके भीतर जल और वन हैं।


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