महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-44

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-44 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

वे वैदूर्यमणि के तेज से प्रकाशित होते हैं। उनमें सोने और चाँदी-जैसी चमक है। उन गृहों के अनेक रूप हैं। नाना प्रकार के रत्नों से उनका निर्माण हुआ है। वे चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल और क्षुद्र घण्टिकाओं की झालरों से सुशोभित हैं। किन्हीं-किन्हीं की कान्ति प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होती है। उन महात्माओं के वे भवन स्थावर भी हैं और जंगम भी हैं। उनमें इच्छानुसार भक्ष्य-भोज्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं। उत्तम शय्या और आसन बिछे रहते हैं। वहाँ सम्पूर्ण मनोवांछित फल देने वाले कल्पवृक्ष प्रत्येक घर में विराजमान हैं। वहाँ बहुत-सी बावडि़याँ, कुएँ और सहस्त्रों जलाशय हैं। प्राणस्वरूप अन्न-दान करने वाले लोगों को स्वर्ग में जो भाँति-भाँति के विचित्र भवन प्राप्त होते हैं, वे रोग-शोक से रहित और नित्य (चिरस्थायी) हैं। जगत् में सदा अन्न और जल का दान करने वाले मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा तथा प्रजापति ब्रह्माजी के लोकों में जाते हैं। वे वहाँ चिरकाल तक अप्सराओं के साथ विहार करके पुनः मनुष्यलोक में जन्म लेते और समस्त कल्याणकारी गुणों से संयुक्त होते हैं। वे सबल शरीर से सम्पन्न, नीरोग, चिरजीवी, कुलीन, बुद्धिमान तथा अन्नदाता होते हैं। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरूष को सदा, सर्वत्र, सबके लिये, सब समय विशेषरूप से अन्नदान करना चाहिये। सुवर्णदान परम उत्तम, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और महान् कल्याणकारी है। इसलिये तुमसे क्रमशः उसी का यथावत्रूप से वर्णन करूँगा। दिया हुआ सुवर्ण का दान क्रूर और पापाचारी को भी प्रकाशित कर देता है। जो शुद्ध हृदयवाले मनुष्य श्रोत्रिय ब्राह्मणों को सुवर्ण का दान करते हैं, वे समस्त देवताओं को तृप्त कर देते हैं। यह वेद का मत है। अग्नि सम्पूर्ण देवताओं के स्वरूप हैं और सुवर्ण को भी अग्निरूप ही बताया जाता है। इसलिये सुवर्ण के दान से समस्त देवता तृप्त होते हैं। अग्नि के अभाव में उसकी जगह सुवर्ण को स्थापित करते हैं। अतः सुवर्ण का दान करने वाले पुरूष सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेते हैं। सुवर्ण का दान करके मनुष्य शीघ्र ही सूर्य एवं अग्नि के नाना प्रकार के मंगलकारी लोकों में प्रवेश करते हैं, इसमें संशय नहीं है। केवल सुवर्ण की अपेक्षा उसका आभूषण बनवाकर दान देना श्रेष्ठ माना गया है। अतः दानकाल में ब्राह्मण को सोने के आभूषण से विभूषित करके भोजन करावे। जो यह अद्भुत एवं उत्कृष्ट सुवर्ण-दान करता है, वह पुनर्जन्म लेने पर निश्चय ही सुन्दर शरीर, कान्ति, बुद्धि और कीर्ति पाता है। अतः मनुष्यों को अपनी शक्ति के अनुसार पृथ्वी पर सुवर्णदान अवश्य करना चाहिये। संसार में इससे बढ़कर कोई दान नहीं है। सुवर्णदान करके मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है। अनिन्दिते! इसके बाद मैं गोदान का वर्णन करूँगा। प्रिये! इस संसार में गौओं के दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। पूर्वकाल में लोकसृष्टि की इच्छा वाले स्वयम्भू ब्रह्माजी ने समस्त प्राणियों की जीवन-वृत्ति के लिये गौओं की सृष्टि की थी। इसलिये वे सबकी माताएँ मानी गयी हैं। गौएँ सम्पूर्ण जगत् में ज्येष्ठ हैं। वे लोगों को जीविका देने के कार्य में प्रवृत्त हुई हैं। मेरे अधीन हैं और चन्द्रमा के अमृतमय द्रव से प्रकट हुई हैं। वे सौम्य, पुण्यमयी, कामनाओं की पूर्ति करने वाली तथा प्राणदायिनी हैं। इसलिये पुण्याभिलाषी मनुष्यों के लिये पूजनीय हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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