"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 182 श्लोक 39-47": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
पंक्ति ४: पंक्ति ४:
शिनिप्रवर! कर्ण ने वैसा ही करने की उनके सामने प्रतिज्ञा भी की थी। कर्ण के हृदय में नित्य निन्तर गाण्डीवधारी अर्जुन के वध का संकल्प उठता रहता था। योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यके! परंतु मैं ही राधा पुत्र कर्ण को मोहित किये रहता था, इसीयिले श्वेतवाहन अर्जुन पर उसने वह शक्ति नहीं छोड़ी। वीरवर! वह शक्ति अर्जुन के लिये मृत्युस्वरूप है, इस चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने के कारण न तो मुझे नींद आती थी और न मेरे मन में कभी हर्ष का उदय होता था। शिनिवंशशिरोमणे! वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ दी गयी, यह देखकर आज मैं यह समझता हूँ कि अर्जुन मौत के मुख से निकल आये हैं। मुझे युद्ध में अर्जुन की रक्षा जितनी आवश्यक प्रतीत होती है, उतनी पिता, माता, तुम-जैसे भाइयों तथा अपने प्राणों की रक्षा भी नहीं प्रतीत होती। सात्यके! तीनों लोगों के राज्य से भी बढ़कर यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी मैं कुन्तीनन्दन अर्जुन के बिना नहीं पाना चाहता। युयुधान! इसीलिये जैसे कोई मरकर लौट आया हो उसी प्रकार कुन्ती पुत्र अर्जुन को देखकर आज मुझे बड़ा भारी हर्ष हुआ था।। 45।। इसी उद्देश्य से मैंने युद्ध में कर्ण का सामना करने के लिये उस रारक्ष को भेजा था। उसके सिवा दूसरा कोई रात्रि के समय समरागंण में कर्ण को पीडि़त नहीं कर सकता था।  
शिनिप्रवर! कर्ण ने वैसा ही करने की उनके सामने प्रतिज्ञा भी की थी। कर्ण के हृदय में नित्य निन्तर गाण्डीवधारी अर्जुन के वध का संकल्प उठता रहता था। योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यके! परंतु मैं ही राधा पुत्र कर्ण को मोहित किये रहता था, इसीयिले श्वेतवाहन अर्जुन पर उसने वह शक्ति नहीं छोड़ी। वीरवर! वह शक्ति अर्जुन के लिये मृत्युस्वरूप है, इस चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने के कारण न तो मुझे नींद आती थी और न मेरे मन में कभी हर्ष का उदय होता था। शिनिवंशशिरोमणे! वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ दी गयी, यह देखकर आज मैं यह समझता हूँ कि अर्जुन मौत के मुख से निकल आये हैं। मुझे युद्ध में अर्जुन की रक्षा जितनी आवश्यक प्रतीत होती है, उतनी पिता, माता, तुम-जैसे भाइयों तथा अपने प्राणों की रक्षा भी नहीं प्रतीत होती। सात्यके! तीनों लोगों के राज्य से भी बढ़कर यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी मैं कुन्तीनन्दन अर्जुन के बिना नहीं पाना चाहता। युयुधान! इसीलिये जैसे कोई मरकर लौट आया हो उसी प्रकार कुन्ती पुत्र अर्जुन को देखकर आज मुझे बड़ा भारी हर्ष हुआ था।। 45।। इसी उद्देश्य से मैंने युद्ध में कर्ण का सामना करने के लिये उस रारक्ष को भेजा था। उसके सिवा दूसरा कोई रात्रि के समय समरागंण में कर्ण को पीडि़त नहीं कर सकता था।  


संजय कहते हैं- महाराज! इस प्रकार अर्जुन के हित में संलग्न और उनके प्रिय साधन में निरन्तर तत्पर रहने वाले भगवान् देवकीनन्दन ने उस समय सात्यकि से यह बात कही थी।  
संजय कहते हैं- महाराज! इस प्रकार अर्जुन के हित में संलग्न और उनके प्रिय साधन में निरन्तर तत्पर रहने वाले भगवान  देवकीनन्दन ने उस समय सात्यकि से यह बात कही थी।  
   
   
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय श्रीकृष्‍ण वाक्‍य विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।  
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय श्रीकृष्‍ण वाक्‍य विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।  

१२:१४, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 39-47 का हिन्दी अनुवाद

शिनिप्रवर! कर्ण ने वैसा ही करने की उनके सामने प्रतिज्ञा भी की थी। कर्ण के हृदय में नित्य निन्तर गाण्डीवधारी अर्जुन के वध का संकल्प उठता रहता था। योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यके! परंतु मैं ही राधा पुत्र कर्ण को मोहित किये रहता था, इसीयिले श्वेतवाहन अर्जुन पर उसने वह शक्ति नहीं छोड़ी। वीरवर! वह शक्ति अर्जुन के लिये मृत्युस्वरूप है, इस चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने के कारण न तो मुझे नींद आती थी और न मेरे मन में कभी हर्ष का उदय होता था। शिनिवंशशिरोमणे! वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़ दी गयी, यह देखकर आज मैं यह समझता हूँ कि अर्जुन मौत के मुख से निकल आये हैं। मुझे युद्ध में अर्जुन की रक्षा जितनी आवश्यक प्रतीत होती है, उतनी पिता, माता, तुम-जैसे भाइयों तथा अपने प्राणों की रक्षा भी नहीं प्रतीत होती। सात्यके! तीनों लोगों के राज्य से भी बढ़कर यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी मैं कुन्तीनन्दन अर्जुन के बिना नहीं पाना चाहता। युयुधान! इसीलिये जैसे कोई मरकर लौट आया हो उसी प्रकार कुन्ती पुत्र अर्जुन को देखकर आज मुझे बड़ा भारी हर्ष हुआ था।। 45।। इसी उद्देश्य से मैंने युद्ध में कर्ण का सामना करने के लिये उस रारक्ष को भेजा था। उसके सिवा दूसरा कोई रात्रि के समय समरागंण में कर्ण को पीडि़त नहीं कर सकता था।

संजय कहते हैं- महाराज! इस प्रकार अर्जुन के हित में संलग्न और उनके प्रिय साधन में निरन्तर तत्पर रहने वाले भगवान देवकीनन्दन ने उस समय सात्यकि से यह बात कही थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय श्रीकृष्‍ण वाक्‍य विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।