महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 182 श्लोक 18-38

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द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद

सूत! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण तो बड़ा बुद्धिमान है, उसने स्वयं ही उस अमोघ शक्ति को अर्जुन पर कैसे नहीं छोड़ा? परम बुद्धिमान गवल्गणकुमार! तुम्ळारे ध्यान से यह बात कैसे निकल गयी कि तुमने कर्ण को इसके विषय में कुछ नहीं समझाया।

संजय ने कहा- राजन्! प्रतिदिन रात को दुर्योधन, शकुनि और दुःशासन का तथा मेरा भी कर्ण से यही आग्रह रहता था कि ‘कर्ण! कल सबेरे तुम सारी सेनाओं को छोड़कर अर्जुन को मार डालो। फिर तो पाण्डवों और पान्चालों का हम भृत्यों के समान उपभोग करेंगे। ‘यदि ऐसा सोचे कि अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण दूसरे किसी पाण्डव को युद्ध के लिये खड़ा कर लेंगे तो श्रीकृष्ण को ही मार डालो। ‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवों की जड़ हैं, अर्जुन ऊपर के तने के समान हैं, अन्य कुन्ती पुत्र शाखाएँ हैं तथा पान्चाल सैनिक पत्तों के समान हैं। ‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवों के आश्रय, बल और रक्षक हैं। जैसे नक्षत्रों के परम आश्रय चन्द्रमा हैं, उसी प्रकार इन पाण्डवों का सबसे बड़ा सहारा श्रीकृष्ण हैं। ‘अतः सूतनन्दन! तुम पत्तो, डालियों और तने को छोड़कर जड़ को ही काट दो। सर्वत्र और सदा श्रीकृष्ण को ही पाण्डवों की जड़ समझो’। राजन्! यदि ककर्ण यादवनन्दन श्रीकृष्ण को मार डालता, तो यह सारी पृथ्वी उसके वश में हो जाती, इसमें संशय नहीं है।। नरेन्द्र! यदि यदुकुल और पाण्डवों को आनन्दित करने वाले महात्मा श्रीकृष्ण उस शक्ति से मारे जाकर रणभूमि में सो जाते, तो पर्वत, समुद्र और वनों सहित यह सारी पृथ्वी आपके वश में आ जाती। ऐसा निश्चय कर लेने के बाद भी जब वह युद्ध के समय सदा सजग रहने वाले अप्रमेयस्वरूप देवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के समीप जाता तो उस पर मोह छा जाता था। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सदा राधानन्दन कर्ण से बचाये रखते थे। उन्होंने रणभूमि में अर्जुन को सूत पुत्र कर्ण के सम्मुख खड़ा करने की कभी इच्छा नहीं की। प्रभो! अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण अन्यान्य महारथियों को कर्ण के पास इसलिये भेजा करते थे कि किसी प्रकार उस अमोष शक्ति को व्यर्थ कर दूँ।। राजन्! जोमहामनस्वी पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण कर्ण से अर्जुन की इस प्रकार रक्षा करते हैं, वे अपनी रक्षा कैसे नहीं करेंगे? मैं भली भाँति सोच-विचार कर देखता हूँ तो तीनों लोगों में कोई ऐसा वीर उपलब्ध नहीं होता, तो शत्रुओं का दमन करने वाले चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण को जीत सके। तदनन्तर रथियों में सिंह के समान शूरवीर सत्यपराक्रमी महारथी सात्यकि ने महाबाहु श्रीकृष्ण से कण्र्का के विषय में इस प्रकार प्रश्न किया-। ‘प्रभो! कर्ण को उस शक्ति के प्रभाव पर विश्वास तो था ही। वह अमित पराक्रम कर दिखाने वाली दिव्य शक्ति उसके हाथ में मौजूद भी थी, तथापि सूतपुत्र ने अर्जुन पर उसका प्रयोग कैसे नहीं किया?’

भगवान श्रीकृष्ण बोले- सात्यके! दुःशासन, कर्ण, शकुनि और जयद्रथ- ये दुर्योधन को आगे रखकर सदा गुप्त मन्त्रणा करते और कर्ण को यह सलाह देते थे कि ‘रणभूमि में अनन्त पराक्रम प्रकट करने वाले, विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर कर्ण! तुम कुन्ती पुत्र महारथी अर्जुन को छोड़कर दूसरे किसी पर इस शक्ति को न छोड़ना। ‘क्योंकि देवताओं में इन्द्र के समान उन पाण्डवों में अर्जुन ही सबसे अधिक यशस्वी हैं। अर्जुन के मारे जाने पर सृंजयों सहित पाण्डव मुखस्वरूप अग्नि से हीन देवताओं के समान मृतप्राय हो जायँगे’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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