"महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 35" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 35 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 35 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
उसकी पीठ पर सोने के खंभों से युक्त बहुत बड़ा हौदा कसा हुआ था। उसके दाँतों में सोना मढ़ा गया था। उसके ऊपर मनोहर झूल पड़ी हुई थी। वह सब प्रकार के रत्नमय आभूषित था। सैकड़ों रत्नों से अलंकृत पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उसके मस्तक से निरन्तर मद की धारा इस प्रकार बहती रहती थी, मानो मेघ पानी बरसा रहा हो। वह विशालकाय दिग्गज सेाने की माला धारण किये हुए था। उस पर बैठे हुए देवराज इन्द्र मन्दराचल के शिखर पर तपते हुए सूर्यदेव की भाँति अद्भासित हो रहे थे। तदननतर शचीपति इन्द्र वज्रमय भंयकर एवं विशाल अंकुश लेकर बलवान अग्रिदेव के साथ स्वर्ग लोक को चल दिये। उनके पीछे हाथि-हथिनियों के समुदायों और विमानों द्वारा मरुद्गण, कुबेर तथा वरुण आदि देतवा भी प्रसन्नता पूर्वक चल पड़े। इन्द्र देव पहले वायुपथ में पहुँचकर वैश्वानरपथ (तेजोमय लोक) में जा पहुँचे। तत्पपश्चात सूर्य देव के मार्ग में जाकर वहाँ अन्तर्धान हो गये। तदननतर सब दशार्हकुल की स्त्रियाँ, राज उग्रसेन की रानियाँ, नन्दगोप की विश्वविख्यात रानी यशोदा, महाभागा रेवती (बलभद्र पत्नी) तथा पतिव्रता रुक्मिणी, सत्या, जाम्बवती, गान्धारराज कन्या शिंशुमा, विशोका, लक्ष्मणा, साध्वी सुमित्रा, केतुमा तथा भगवान वासुदेव की अन्य रानियाँ ये सब की सब श्रीजी के साथ भगवान केशव की विभूति एवं नवागत सुन्दरी रानियों को दखेन के लिये और श्रीअच्युत का दर्शन करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ सभा भवन में गयीं। देवकी तथा रोहिणीजी सब रानियों के आगे चल रही थीं। सबने वहाँ जाकर श्रीबलरामजी के साथ बैठे हुए श्रीकृष्ण को देखा। उन दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण ने उठकर पहले राहिणीजी को प्रणाम किया। फिर देवकीजी की तथा सात देवियों में से श्रेष्ठता के क्रम से अन्य सभी माताओं की चरण वन्दना की। बलराम सहित भगवान उपेन्द्र ने जब इस प्रकार मातृ चरणों में प्रणाम किया, तब वृष्णिकुल की महिलाओं में अग्रणी माता देवकीजी ने एक श्रेष्ठ आसन पर बैठकर बलराम और श्रीकृष्ण दोनों को गोद में ले लिया। वृषभ के सह्श विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उस समय माता देवकी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति की होती है। इसी समय यशोदाजी को पुत्री क्षणभर में वहाँ आ पहुँची। भारत! उसके श्रीअंग दिव्य प्रभा से प्रज्वति से हो रहे थे। उस कामरूपिणी कन्या का नाम था ‘एकानंगा’। जिसके निमित्त से पुरुषोंत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध किया था। तब भगवान बलराम ने आगे बढ़कर उस मानिनी बहिन को बायें हाथ से पकड़ लिया और वात्सल्य स्नेह से उसका मस्तक सूँघा। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी उस कन्या को दाहिने हाथ से पकड़ लिया। लोगों ने उस सभा में बलराम और श्रीकृष्ण की इस बहिन को देखा, मानो दो श्रेष्ठ गजराजों के बीच में सवुर्णमय कमल के आसन पर विराजमान भगवती लक्ष्मी हों। तत्पश्चात वृष्णिवंशी पुरुषों ने प्रसन्न होकर बलराम और श्रीकृष्ण पर लाजा (खील), फूल और घीसे युक्त अक्षत की वर्षा की। उस समय बालक, वृद्ध, ज्ञाति, कुल और बन्ध- बान्धवों सहित समस्त वृष्णिवंशी प्रसन्नता पूर्वक भगवान् मधुसूदन के समीप बैठ गये। इसके बाद पुरवासियों की प्रीति बढ़ाने वाले पुरुषसिंह महाबाहु मधुसूदन ने सबसे पूजित हो अपने महल में प्रवेश किया।  
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उसकी पीठ पर सोने के खंभों से युक्त बहुत बड़ा हौदा कसा हुआ था। उसके दाँतों में सोना मढ़ा गया था। उसके ऊपर मनोहर झूल पड़ी हुई थी। वह सब प्रकार के रत्नमय आभूषित था। सैकड़ों रत्नों से अलंकृत पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उसके मस्तक से निरन्तर मद की धारा इस प्रकार बहती रहती थी, मानो मेघ पानी बरसा रहा हो। वह विशालकाय दिग्गज सेाने की माला धारण किये हुए था। उस पर बैठे हुए देवराज इन्द्र मन्दराचल के शिखर पर तपते हुए सूर्यदेव की भाँति अद्भासित हो रहे थे। तदननतर शचीपति इन्द्र वज्रमय भंयकर एवं विशाल अंकुश लेकर बलवान अग्रिदेव के साथ स्वर्ग लोक को चल दिये। उनके पीछे हाथि-हथिनियों के समुदायों और विमानों द्वारा मरुद्गण, कुबेर तथा वरुण आदि देतवा भी प्रसन्नता पूर्वक चल पड़े। इन्द्र देव पहले वायुपथ में पहुँचकर वैश्वानरपथ (तेजोमय लोक) में जा पहुँचे। तत्पपश्चात सूर्य देव के मार्ग में जाकर वहाँ अन्तर्धान हो गये। तदननतर सब दशार्हकुल की स्त्रियाँ, राज उग्रसेन की रानियाँ, नन्दगोप की विश्वविख्यात रानी यशोदा, महाभागा रेवती (बलभद्र पत्नी) तथा पतिव्रता रुक्मिणी, सत्या, जाम्बवती, गान्धारराज कन्या शिंशुमा, विशोका, लक्ष्मणा, साध्वी सुमित्रा, केतुमा तथा भगवान वासुदेव की अन्य रानियाँ ये सब की सब श्रीजी के साथ भगवान केशव की विभूति एवं नवागत सुन्दरी रानियों को दखेन के लिये और श्रीअच्युत का दर्शन करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ सभा भवन में गयीं। देवकी तथा रोहिणीजी सब रानियों के आगे चल रही थीं। सबने वहाँ जाकर श्रीबलरामजी के साथ बैठे हुए श्रीकृष्ण को देखा। उन दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण ने उठकर पहले राहिणीजी को प्रणाम किया। फिर देवकीजी की तथा सात देवियों में से श्रेष्ठता के क्रम से अन्य सभी माताओं की चरण वन्दना की। बलराम सहित भगवान उपेन्द्र ने जब इस प्रकार मातृ चरणों में प्रणाम किया, तब वृष्णिकुल की महिलाओं में अग्रणी माता देवकीजी ने एक श्रेष्ठ आसन पर बैठकर बलराम और श्रीकृष्ण दोनों को गोद में ले लिया। वृषभ के सह्श विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उस समय माता देवकी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति की होती है। इसी समय यशोदाजी को पुत्री क्षणभर में वहाँ आ पहुँची। भारत! उसके श्रीअंग दिव्य प्रभा से प्रज्वति से हो रहे थे। उस कामरूपिणी कन्या का नाम था ‘एकानंगा’। जिसके निमित्त से पुरुषोंत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध किया था। तब भगवान बलराम ने आगे बढ़कर उस मानिनी बहिन को बायें हाथ से पकड़ लिया और वात्सल्य स्नेह से उसका मस्तक सूँघा। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी उस कन्या को दाहिने हाथ से पकड़ लिया। लोगों ने उस सभा में बलराम और श्रीकृष्ण की इस बहिन को देखा, मानो दो श्रेष्ठ गजराजों के बीच में सवुर्णमय कमल के आसन पर विराजमान भगवती लक्ष्मी हों। तत्पश्चात वृष्णिवंशी पुरुषों ने प्रसन्न होकर बलराम और श्रीकृष्ण पर लाजा (खील), फूल और घीसे युक्त अक्षत की वर्षा की। उस समय बालक, वृद्ध, ज्ञाति, कुल और बन्ध- बान्धवों सहित समस्त वृष्णिवंशी प्रसन्नता पूर्वक भगवान  मधुसूदन के समीप बैठ गये। इसके बाद पुरवासियों की प्रीति बढ़ाने वाले पुरुषसिंह महाबाहु मधुसूदन ने सबसे पूजित हो अपने महल में प्रवेश किया।  
  
 
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१२:२६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 35 का हिन्दी अनुवाद

उसकी पीठ पर सोने के खंभों से युक्त बहुत बड़ा हौदा कसा हुआ था। उसके दाँतों में सोना मढ़ा गया था। उसके ऊपर मनोहर झूल पड़ी हुई थी। वह सब प्रकार के रत्नमय आभूषित था। सैकड़ों रत्नों से अलंकृत पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उसके मस्तक से निरन्तर मद की धारा इस प्रकार बहती रहती थी, मानो मेघ पानी बरसा रहा हो। वह विशालकाय दिग्गज सेाने की माला धारण किये हुए था। उस पर बैठे हुए देवराज इन्द्र मन्दराचल के शिखर पर तपते हुए सूर्यदेव की भाँति अद्भासित हो रहे थे। तदननतर शचीपति इन्द्र वज्रमय भंयकर एवं विशाल अंकुश लेकर बलवान अग्रिदेव के साथ स्वर्ग लोक को चल दिये। उनके पीछे हाथि-हथिनियों के समुदायों और विमानों द्वारा मरुद्गण, कुबेर तथा वरुण आदि देतवा भी प्रसन्नता पूर्वक चल पड़े। इन्द्र देव पहले वायुपथ में पहुँचकर वैश्वानरपथ (तेजोमय लोक) में जा पहुँचे। तत्पपश्चात सूर्य देव के मार्ग में जाकर वहाँ अन्तर्धान हो गये। तदननतर सब दशार्हकुल की स्त्रियाँ, राज उग्रसेन की रानियाँ, नन्दगोप की विश्वविख्यात रानी यशोदा, महाभागा रेवती (बलभद्र पत्नी) तथा पतिव्रता रुक्मिणी, सत्या, जाम्बवती, गान्धारराज कन्या शिंशुमा, विशोका, लक्ष्मणा, साध्वी सुमित्रा, केतुमा तथा भगवान वासुदेव की अन्य रानियाँ ये सब की सब श्रीजी के साथ भगवान केशव की विभूति एवं नवागत सुन्दरी रानियों को दखेन के लिये और श्रीअच्युत का दर्शन करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ सभा भवन में गयीं। देवकी तथा रोहिणीजी सब रानियों के आगे चल रही थीं। सबने वहाँ जाकर श्रीबलरामजी के साथ बैठे हुए श्रीकृष्ण को देखा। उन दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण ने उठकर पहले राहिणीजी को प्रणाम किया। फिर देवकीजी की तथा सात देवियों में से श्रेष्ठता के क्रम से अन्य सभी माताओं की चरण वन्दना की। बलराम सहित भगवान उपेन्द्र ने जब इस प्रकार मातृ चरणों में प्रणाम किया, तब वृष्णिकुल की महिलाओं में अग्रणी माता देवकीजी ने एक श्रेष्ठ आसन पर बैठकर बलराम और श्रीकृष्ण दोनों को गोद में ले लिया। वृषभ के सह्श विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उस समय माता देवकी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति की होती है। इसी समय यशोदाजी को पुत्री क्षणभर में वहाँ आ पहुँची। भारत! उसके श्रीअंग दिव्य प्रभा से प्रज्वति से हो रहे थे। उस कामरूपिणी कन्या का नाम था ‘एकानंगा’। जिसके निमित्त से पुरुषोंत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध किया था। तब भगवान बलराम ने आगे बढ़कर उस मानिनी बहिन को बायें हाथ से पकड़ लिया और वात्सल्य स्नेह से उसका मस्तक सूँघा। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी उस कन्या को दाहिने हाथ से पकड़ लिया। लोगों ने उस सभा में बलराम और श्रीकृष्ण की इस बहिन को देखा, मानो दो श्रेष्ठ गजराजों के बीच में सवुर्णमय कमल के आसन पर विराजमान भगवती लक्ष्मी हों। तत्पश्चात वृष्णिवंशी पुरुषों ने प्रसन्न होकर बलराम और श्रीकृष्ण पर लाजा (खील), फूल और घीसे युक्त अक्षत की वर्षा की। उस समय बालक, वृद्ध, ज्ञाति, कुल और बन्ध- बान्धवों सहित समस्त वृष्णिवंशी प्रसन्नता पूर्वक भगवान मधुसूदन के समीप बैठ गये। इसके बाद पुरवासियों की प्रीति बढ़ाने वाले पुरुषसिंह महाबाहु मधुसूदन ने सबसे पूजित हो अपने महल में प्रवेश किया।


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