"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर
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०५:५८, ४ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
भीष्म द्वारा राज्य रक्षा के साधनों का वर्णन तथा संध्या के समय युधिष्ठिर आदि का विदा होना और रास्ते में स्नान-संध्यादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर हस्तिनापुर में प्रवेश
भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! यह मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, राजधर्मरूपी दुध का माखन है। भगवान बृहस्पति इस न्यायानुकूल धर्म की ही प्रशंसा करते है। इनके सिवा भगवान विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्त्र नेत्रोंवाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा- ये सभी ब्राह्मण भक्त और ब्रह्मवादी लोग राजशास्त्र के प्रणेता है, ये सब राजा के लिये प्रजापालनरूप् धर्म की ही प्रशंसा करते है। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कमलनयन युधिष्ठिर! इस रक्षात्मक धर्म के साधनों का वर्णन करता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! गुप्तचर ( जासूस ) रखना, दूसरे राष्ट्रों में अपना प्रतिनिधि ( राजदूत ) नियुक्त करना, सेवकों को उनके प्रति ईष्र्या न रखते हुए समय पर वेतन और भत्ता देना, युक्ति से कर लेना, अन्याय से प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरूषों का संग्रह करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित-चिन्तन, सरल या कुटिल उपायों से भी शत्रुपक्ष में फूट डालना, पुराने घरों की मरम्मत एवं मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराना, दीन-दुखियों की देखभाल करना, समयानुसार शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड का प्रयोग करना, साधु पुरूषों का त्याग न करना, कुलीन मनुष्यों को अपने पास रखना, संग्रह योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान पुरूषों का सेवन करना, पुरस्कार आदि के द्वारा सेना का हर्ष और उत्साह बढाना, नित्य-निरन्तर प्रजा की देखभाल करना, कार्य करने में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढाना, नगर की रक्षा का पूरा प्रबन्ध करना, इस विषय में दूसरों के विश्वास पर न रहना, पुरवासियों ने अपने विरूद्ध कोई गुटबंदी की हो तो उसमें फूट डलवा देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर यथोचित दृष्टि रखना, दूसरों के द्वारा अपने सेवकों में भी गुटबंदी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, स्वयं किसी पर भी पूरा विश्वास न करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीच कर्मों तथा दुष्ट पुरूषों को सदा के लिये त्याग देना- ये सभी राज्य की रक्षा के साधन है। बृहस्पति ने राजाओं के लिये उद्योग के महत्व का प्रतिपादन किया है। उद्योग ही राजधर्म का मूल है। इस विषय में जो श्लोक हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। देवराज इन्द्र ने उद्योग से ही अमृत प्राप्त किया, उद्योग से ही असुरों का संहार किया तथा उद्योग से ही देवलोक और इहलोक में श्रेष्ठता प्राप्त की। जो उद्योग में वीर है, वह पुरूष केवल वाग्वीर पुरूषों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है। वाग्वीर विद्वान उद्योगवीर पुरूषों का मनोरंजन करते हुए उनकी उपासना करते है।जो राजा उद्योगहीन होता हैं, वह बुद्विमान होने पर भी विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रुओं के द्वारा परास्त होता रहता है। बलवान पुरूष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखावे; क्योंकि आग थोडी सी हो तो भी जला डालती है और विष कम मात्रा में हो तो भी मार डालता है। चतुरागिणी सेना के एक अंग से भी सम्पन्न हुआ शत्रु दुर्ग का आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजा के समूचे देश को भी संतप्त कर डालता है।
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