महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 58 श्लोक 19-30
अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
राजा के लिये जो गोपनीय रहस्य की बात हो, शत्रुओं पर विजय पाने के लिये वह जो लोगों का संग्रह करता हो, विजय के ही उद्देश्य से उसके हद्य में जो कार्य छिपा हो अथवा उसे जो न करने योग्य असत कार्य करना हो, वह सब कुछ उसे सरलभाव से ही छिपाये रखना चाहिये। वह लोगों में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सदा धार्मिक कर्मों का अनुष्ठान करे। राज्य एक बहुत बडा तन्त्र है। जिन्होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले राजा उस विशाल तन्त्र को सँभाल नहीं सकते। इसी प्रकार जो बहुत कोमल प्रकृति के होते है, वे भी इसका भार वहन नहीं कर सकते। उनके लिये राज्य बडा भारी जंजाल हो जाता है। युधिष्ठिर! राज्य सब के उपभोग की वस्तु है; अतः सदा सरल भाव से ही उसकी सँभाल की जा सकती है। इसलिये राजा में क्रूरता और कोमलता दोनों भावों का सम्मिश्रण होना चाहिये। प्रजा की रक्षा करते हुए राजा के प्राण चले जाये तो भी वह उसके लिये महान धर्म है। राजाओं के व्यवहार और बर्ताव ऐसे ही होने चाहिए। कुरूश्रेष्ठ! यह मैंने तुम्हारे सामने राजधर्मों का लेशमात्र वर्णन किया है। अब तुम्हें जिस बात में संदेह हो, वह पूछो।
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! भीष्मजी का यह वक्तव्य सुनकर भगवान व्यास, देवस्थान, अश्म, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण, कृपाचार्य, सात्यकि और संजय बडे प्रसन्न हुए और हर्ष से खिले हुए मुखोंद्वारा साधुवाद देते हुए धर्मात्माओं में श्रेष्ठ पुरूषसिंह भीष्मजी की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तत्पश्चात कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने मन ही मन दुखी हो दोनों नेत्रों में आँसू भरकर धीरे से भीष्मजी के चरण छूए और कहा- पितामह! इस समय भगवान सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी के रस का शोषण करके अस्ताचलको जा रहे है; इसलिये अब मैं कल आपसे अपना संदेह पूछूँगा। तदनन्तर ब्रह्मणों को प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण, कृपाचार्य तथा युधिष्ठिर आदि ने महानदी गंगा के पुत्र भीष्मजी की परिक्रमा की। फिर वे प्रसन्नतापूर्वक अपने रथों पर आरूढ हो गये। फिर दृषद्वती नदी में स्नान करके उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे शत्रुसंतापी वीर विधिपूर्वक संध्या, तर्पण और जप आदि मंगलकारी कर्मों का अनुष्ठान करके वहाँ से हस्तिनापुर में चले आये।
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